इतनी प्रचंड गर्मी है कि मेरे दोनों हाथ दर्द कर रहे हैं..आँखें जल रही हैं..भीषण गर्मी के कारण नींद नही पूरी हो पा रही है।

चौंकिये मत! कि गर्मी के कारण हाथ में दर्द कैसे होता है? वो ऐसे होता है कि मेरी तरह के लोग जो ए.सी., कूलर , पंखा चलने के बाद भी बेना डुलाते हैं।

जिन्हें

ए.सी. से दो घंटे में ही ठंड लगती है। कूलर की आवाज से इरिटेशन होती है। पंखा भी कुछ घंटे बाद गर्म हवा फेंकने लगता है और उसकी भी फ फ फ फ की आवाज नाकाबिले बर्दाश्त है।
इसलिये
इसीलिये .. हाथ में दर्द होता है।

ऊपर पंखा तीन पर चलता है। नीचे हाथ में बेना कम ,ज्यादा हो के अनवरत डोलता रहता है..डोलता रहता है.. साथ वाला कैसी भी गर्मी हो ,सोने के बाद नही जानता। चैन से सोता है। और बेना /बेनिया वाली बंदी रात भर बेना डुलाती कबीर हुई रहती है -जागे अरु रोवे(गर्मी को!)

यू.पी.बिहार और कुछ राज्यों को छोड़ शायद बहुत कम लोग बेना को जानते ,पहचानते होंगे।ताड़ का पंखा तो सब जानते होंगे। पर बेना को उसकी खूबियों के साथ नहीं पहचानते होंगे। बेना भी ताड़ के पंखे जैसा बाँस का बना हाथ का पंखा है। उससे ज्यादा उपयोगी भी।

ताड़ का पंखा सिर्फ खुद को हवा करता है। जबकि बेना को गोल-गोल घुमा कर डोलाया /हांका ( हवा किया जाता है) जाता है और इससे आसपास के लोगों को भी हवा लगती है।
ताड़ का पंखा स्वार्थी है!
तो बाँस का बेना परमार्थी है!

बेना के इसी चहुँओर, डोलने हवा करने वाले स्वभाव के कारण भाई -बहन मेरे पास सोने के लिए लड़ते थे।मेरा काम कर देते थे। मुझे राजा होने का फील देते थे। क्योंकि मैं रात भर कभी इस हाथ, कभी उस हाथ से बेना डोलाती रहती थी। और भाई बहन बिजली न रहने के बाद भी ‘मिले चैन आए आराम’ जैसे सुख की नींद सोते रहते थे।

नौतपे में बेना को पानी से भिगा कर डोलाया जाता है। इस बेना की हवा कूलर जैसी ठंडी होती है। यह सारे काम मेरे थे क्योंकि मुझे ही गर्मी बहुत लगती रही है।

बचपन से ही मांँ, मौसी, नानी लोग से सुना है अपने परिश्रमी ,प्रेमी, कर्मठ स्वभाव का किस्सा जो बेना से ही जुड़ा है।

मैं और दीदी बहुत छोटे थे तब। अम्मा के अगल-बगल सो रहे थे नानी के आंगन में। तो दीदी कहती है -माँ खुजा.. माँ मच्छल.. मांँ गम्मी.. और मैं मांँ के दूसरी ओर से अपनी दीदी को पुचकारती खड़ी हो जाती। नानी के अनुसार अपने कद के बराबर बेना ले कर डोलाने लगती, बिंदी (दरअसल बिन्नी दीदी) को दाएं-बाएं हिल -हिल के। और मेरी प्यारी दीदी तुरंत अम्माँ के ऊपर हाथ पैर चढ़ाकर सो जाती। उसे विश्वास हो जाता कि मेरे डोलाये बेना से जो हवा आ रही है वह सीधे मलयगिरी पर्वत से आती हवा है।

मेरी आत्मनिर्भरता का पहला प्रमाण है बेना!

आइ लभ्भ बैम्बू बेना स्टिल नाउ!

हमारे कस्बे में बिजली के पोल थे। तार थे और घरों में उषा के पंखे थे। पर बिहार की बिजली व्यवस्था ऐसी थी कि हमने बचपन से ले कर बी.ए. तक लालटेन, लैंप से पढ़ाई की। और गर्मियों में छत पर या कमरे की छत पर लटके उषा पंखों के नीचे बेना डोला कर रात काटी गर्मियों की।

गांँव में तो बिजली के खंभे भी 90 के दशक में आए। ऐसे में लाठी की तरह ही सस्ता, सुंदर टिकाऊ बेना हमारे साथ रहा। बिल्कुल गिरधर कविराय की लाठी पर लिखे छंद की तरह! पढ़ा तो होगा ही सभी ने। याद है ना (लाठी में गुन बहुत है सदा राखिए संग।) इसी तरह बेना पर भी छंद,कबित्त हो सकता है। बल्कि कुछ मामलों मे यह उसका छोटा भाई है। बल्कि यह तो ना सिर्फ;

‘झपटि कुत्ता को मारे ,दुस्मन दांवगीर हो तिनहूं को झारे’

से आगे बढ़ कर पीठ ,हाथ खजुआने , हल्की बारिश में सिर का छाता होने , थोड़े से अनाज को धूप में सुखाने , बिस्तर पर बैठ कर चा- पानी करने को त्वरित उपलब्ध ट्रे का भी काम करता है। हामिद के चिमटे की तरह ही हमारे बचपन को इसने कई तरीके के खेल में साथी बन कर हमारा बचपन समृद्ध किया है। कहावतों में- ‘ बेना के पथार’ की मार्मिक अभिव्यंजना है। वो फिर सही।

तो हमारे बचपन से युवावस्था तक लालटेन , जीवनसाथी टॉर्च और एवरेडी बैट्री के साथ बेना भी हमारा अभिन्न साथी रहा। और हम उन लोगों में से हैं जो बचपन की मुहब्बत को दिल से जुदा नहीं करते। बाँस का बेना कस्बा,गांँव में अभी भी हर घर में आपको मिल जाएगा।

स्त्रियां नैसर्गिक रूप से जोड़ने, जोगाने का, श्रृंगारिक अभिरुचि का स्वभाव ले कर आई है इस धरा पर। उन्हें जो कुछ भी काम का लगा;

(बे काम का तो उन्हें गोबर भी नहीं लगा मित्रों! उस से भी उन्होंने कंडे, उपले बना लिए।और यहांँ तक कि त्याज्य गोबर के लक्ष्मी और गणेश भी बना कर पूज लिया! जाओ रे पंडित जाओ! )

-उसे उन लोगों ने जोगा लिया। सेंत ,लिया संरक्षित कर लिया। बचा लिया। बेना भी उनमें से एक है।

बेना यूंँ तो बाँस की पतली- पतली खपच्चियों से बीना जाता है। बाँस के ही पतले छोटे खोखल में बाँस की ही एक पतली गिरह वाली डंडी की रोक पर इसे गोल- गोल नचाया जाता है। यह जब बाजार से आता है तो यह अपने रूप और आकृति में संपूर्ण होता है।

लेकिन इसे लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए इसे और भी ज्यादा सुंदर बनाने के लिए महिलाएं इसके किनारे कपड़े की किनारी लगा के सिल देती हैं। यह छोटे-मोटे चोट चपेट, खरोंच से रक्षा करने वाला अवरोध भी होता है। कपड़े की पट्टियों से सील किया हुआ बेना बच्चों की मारपीट में या डोलाते हुए गहरी नींद में अपने मुंँह ,माथे को खरोचने, चुभने और चोट लगने से बचा देता है। इसे ही चीज जोगाना भी कहते हैं।

पर महिलायें इसे सिर्फ जोगा कर ही नहीं मानीं/ नहीं मानती हैं। इसमें सलमा -सितारे, बेल बूटे काढ़े जाते हैं। रिबन की चुन्नटों से फूल टांके जाते हैं। इस तरह का कलात्मक बेना लड़की के ससुराल भेजा जाता है। सलामी, पांयलागी के तौर पर। और इस कलात्मक पंखा बेना को सास , जेठानी के खिदमत में पेश किया जाता है। थोड़े से पीछे की कहानियों में पीतल के पनडब्बे को पास रखे ,मुँह में पान की गिलौरी दबाये ,सरौता से छलिया कसैली काटते और कभी बहू की सलामी वाला बेना डुलाते गर्मी को कोसती छबीली सासें मिल जायेंगी आपको।

बेना लोक रीत से लोक गीत तक अपनी शान और नजाकत के साथ सुरक्षित है। ससुराल भेजे जाने वाले बेना की एक झलक;

दुई हीरा लगी ,दुई पन्ना जड़ी
दुई गुल मोतियन की लड़िया लगी

इन भोली स्त्रियों ने गर्मी से त्रस्त हो कर जितने गीत गाए उसमें बेना राजा महाराजाओं को भी हांका गया। पाताल की महारानी का महाराज के स्वामित्व वाले प्रेम को रीझ रीझ के गाया और महारानी से भी महाराज को बेना डुलवाया।

नाग सुतेलें,नागिन जागे ssली
बेनिया डोलावेली होss

पाताल लोक में भी महारानी ही – बेनिया डोलावेली!

लोक, परलोक सब जगह अपनी उपयोगिता के कारण ही बेना बड़े प्रेम से डोल रहा है।

बट सावित्री में बरगद के पेड़ को अंकवार ले के ,बेना डोलाती हैं महिलाएं। जेठ की द्वादशी में बाँस का बेना जल भरे मिट्टी के घड़े के उपर रख के दान करने की परंपरा है।

कपड़े, गेहूं की सींक वाले बेना पर धागे की डिजाइन और कपड़े वाले पर सुग्गा मैना,मछरी वाली कढ़ाई और गुल मोतियन की लड़ियां लगी देखा है मैने।

बाँस का बेना एक खास समुदाय बनाता है और इसके विक्रय पर भी उन्हीं का वर्चस्व है। होना भी चाहिये!

तमाम पंखा, बेना होने के बावजूद मधुर मदिर बयार सी हवा की गारंटी बस बाँस का बेना ही देता है। इसके सम्मान में यह डाक टिकट भी जारी है।

और हम पर हंँसने या हमें पिछड़ा ,गंँवार समझने के बजाय जाईये किसी बिहारी मार्केट से बाँस का बेना खरीद लीजिये। नहीं हांँकियेगा महाराज! ड्राइंग रूम की दीवार पर सजाइएगा। जापान का पंखा सजाएंगे आप लोग भारत का बेना क्यों नहीं ? काहे भाई ??

बांँस का बेना लाइए। उसे डोला कर परिश्रम का स्वेद सुखाइए। इसके रोजगार को बढ़ावा दीजिए। इस तरह श्रम का सम्मान कीजिए।

स्वास्थ्य ,श्रम -संवेदन , नागर हित में जारी!

स्मिता बाजपेयी

( लेखिका मशहूर कवियित्री/लेखिका हैं )


स्मिता वाजपेयी

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