(वी के सिंह यदुवंशी की फेसबुक वाल से)

जन्मदिन 31 जुलाई : कलम का सिपाही

हिंदी साहित्य में पहली बार एक शब्द का प्रयोग उन्होंने किया और वह शब्द है,
‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’.


उनके अनुसार दुर्बलता, असमानता और क्रूरता का नग्न चित्र है यथार्थ. वह हमें निराशा, अविश्वास और बुराई ही बुराई देखने की ओर ले जाता है.वह हमें कुप्रथाओं और विषमताओं का साक्षात कराता है,यह ठीक है,पर जब वह शिष्टता की सीमाओं को लांघ जाता तो वह आपत्तिजनक बनता है.वे मानते हैं कि मनुष्य स्वभावत: छल, छुद्रता और कपट की पुनरावृत्ति नहीं चाहता. वे आगे कहते हैं- अंधेरी गर्म कोठरियों में काम करते-करते जब हम थक जाते हैं, तब इच्छा होती है किसी बाग में निकलकर निर्मल स्वच्छ वायु का आनंद उठायें. इसी कमी को आदर्शवाद पूरी करता है. वह हमें उन चरित्रों से परिचित कराता है, जिनके हृदय पवित्र होते हैं, जो वासनाओं और स्वार्थ से रहित होते हैं, जो साधु प्रकृति के होते हैं. आदर्शवाद में यह आशंका भी रहती है कि वह कहीं निर्जीव सिद्धांतों की मूर्तियां न गढ़ दे, जीवन विहीन चरित्रों की सृष्टि न कर दे.


किसी मूर्ति की कामना करना सरल है पर उसमें प्राण प्रतिष्ठा करना कठिन है. वे मानते हैं कि वही साहित्य उच्चकोटि का है जहां यथार्थ और आदर्श का समावेश हो.


इसे वे “आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद” कहते हैं. धर्म के पाखण्ड, छल कपट , अंधविश्वास आदि के वे विरोधी हैं, पर वे धर्म और नीति की महत्ता को स्वीकार करते हैं. वे हिंदू संस्कृति पर गर्व करते हैं. अधिकांश में हिंदू समाज की कथा कहते हैं और उसका मूल आध्यात्म,त्याग और मानवता में देखते हैं.उन्होंने राणा प्रताप,रणजीत सिंह,स्वामी विवेकानंद और दुर्गादास जैसे राष्ट्र नायकों पर जीवनीपरक लेख लिखे.एक लेख में उन्होंने लिखा –


“हिंदू जाति यदि अपने पुरखाओं को किसी धर्म संग्राम में आत्मोत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न न हो,तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि हममें वीर पूजा की भावना भी नहीं रही,जो किसी जाति के अध:पतन का अंतिम लक्षण है. जब तक हम अर्जुन, प्रताप , शिवाजी आदि वीरों की पूजा और उनकी कीर्ति पर गर्व करते हैं, तब तक हमारे पुनरुद्धार की कुछ आशा हो सकती है. जिस दिन हम इतने जाति गौरव- शून्य हो जायेंगे कि अपने पूर्वजों की अमर – कीर्ति पर आपत्ति करने लगें, उस दिन हमारे लिए कोई आशा न रहेगी.हम तो उस चित्तवृत्ति की कल्पना करने में भी असमर्थ हैं,जो हमारे अतीत गौरव की ओर इतनी उदासीन हो.”-


(माधुरी, जनवरी १९२५)


वे शनै:शने: ‘भारतीयता’ तथा “भारतीय उपन्यास” का उद्घाटन करते हैं और उनके पात्रों,भाषिक बोलियों,कथाचक्रों के सामाजिक प्रतिवेदन तथा मूल्यों आदि में भारतीयता की अस्मिता अंतर्निहित है. (डा.रमेश कुंतल मेघ). मुक्तिबोध उनको ‘भारतीय आत्मा के शिल्पी’ मानते हैं.


उनकी भारतीयता उनके रचना संसार को कालजयी बनाती है . भारत का साहित्यकार ,चिंतक और दार्शनिक तभी अमर हो सकता है ,जब वह भारतीय अस्मिता भारतीय चेतना का शिल्पी हो,जैसे -बाल्मीकि, कालिदास और तुलसी. निस्संदेह उनके साहित्य में भारत की मांटी के चिन्मय तत्वों से बनी मूरतें हैं और उन्होंने भारतीय भूमि, भू-जीवन , भू-संस्कृति तथा भू-अस्मिता की रक्षा का संकल्प लेकर , इन मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा की है.


हम और हमारी पीढियां इस प्रतीक्षा में हैं और रहेंगे भी कि देश की आत्मा और संस्कृति से प्रेम करने और इसके मंगल की प्रार्थना करने वाले लेखक पुनः जन्म लें और हमारा पथ आलोकित करें.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *