(प्रशासक/ स्तंभकार राघवेन्द्र विक्रम सिंह का लेख)
31 जुलाई को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद जी का जन्मदिवस है. लमही का स्मरण हो आता है. मैं 2004 तक वाराणसी में सचिव विकास प्राधिकरण था. जब मैं नया नया सचिव बना था तो एक दिन चर्चा में अचानक लमही की बात आयी. बताया गया कि उनके घर के अनुरक्षण के लिए प्राधिकरण काम कर रहा है. तो यह तय हुआ कि चला जाए. मैंने अपने स्कूली दिनों के मित्र डा. महेंद्र जो वहीं बनारस में सर सुंदरलाल अस्पताल बीएचयू में आई स्पेशलिस्ट थे और आजकल बिहार में किसी विश्वविद्यालय के वीसी हैं, को टेलीफोन मिलाया,
- का महेंदर, लमही चलैके ?
- चलअ. चलअ. ठीक बा.
- सांझी के चलल जाई. आ जइह.
शाम को हम लोग बड़े उत्साह से चले. जैसे साक्षात् प्रेमचंद जी से ही मिलने जा रहे हों. हमारे इंजीनियर लोग भी साथ थे. मुख्य सड़क से गांव में प्रेमचंद जी का प्राचीन निवास बमुश्किल तीन सौ गज पर रहा होगा. पुराना सा छोटा मध्यवर्गीय मकान. बगल में कुआं. घर के अंदर छतें गिरने गिरने को थी. आसपास कुछ पक्के मकान थे. सामने एक उजाड़ सा मैदान था जिसके पार पुराने वृक्ष थे. आगे गये तो कुछ गांव के लोग साथ आ गये. हम सब गांव के तालाब तक गये. प्रेमचंद जी के जमाने में ये सब कच्चे घर रहे होंगे. निपट गरीबी का आलम रहा होगा. इसी परिवेश के इन्हीं चरित्रों से उन्होंने अपने पात्र उठाये होंगे. बतकचर करते हुए हम सब उनके मकान पर वापस आये.
अंदर गये तो देखा गया कि प्रेमचंद जी के आवास के अनुरक्षण में हमारे ठेकेदार ने बड़ा खराब काम किया था. उस में पुराने भवनों को मूल रूप में रखरखाव का न तो कोई सेंस था, न उसे किसी ने कहा ही होगा. आज की ईंट सीमेंट से काम हुआ था. कुएं की जगत ईंट सीमेंट से बना कर चौपट कर दी गयी थी. प्राचीनता गायब हो गयी थी. क्रोध तो बहुत आया. हमारे इंजीनियर साहब में भी उस ठेकेदार की तरह अनुरक्षण की कोई सोच नही दिख रही थी. डाटफटकार से वे थोड़ा डिस्टर्ब से हो गये. ठेकेदार का बाकी भुगतान रोक दिया गया.
अब वह बाकी भुगतान के लिए जैसा कि चलन है वह स्वाभाविक रूप से बनारस के स्थानीय नेताओं की पैरवी के हवाले हो गया. गांव की हालत देख कर अफसोस भी हुआ कि यह हमारे महानतम साहित्यकारों में से एक का ग्राम है. महेंदर भी भावुक हो रहे थे. ‘बताइये, अर्नेस्ट हेमिंग्वे का घर देख आइये, क्या म्यूजियम है. उनका साहित्य सजीव है वहां. अपने यहां यह हाल है.’ बात सही है. विदेशों में अपने महान् साहित्यकारों की स्मृतियों, धरोहरों के लिए लोग क्या क्या जतन करते हैं और एक हम हैं. उजड़ा हुआ घर है, छोटी सी बदरंग मूर्ति है. अंधेरे में खड़े हैं. आजादी के बाद इतनी सरकारें, इतने शिक्षा-संस्कृति मंत्री, कोई कभी पूंछने नहीं आया. संवेदनशीलता मात्र वोटों के लिए होती है. प्रेमचंद जी की जाति भी ऐसी नहीं जो वोटबैंक कमांड करती हो तो कौन पूंछे.
गांव के कुछ लोग हम लोगों को देख कर आ गये थे.
- ट्रासफार्मर ही नहीं है साहब. गांव है लमही, लेकिन बिजली कभी कभी आती है. एक ग्रामीण ने कहा.
- आप सब न जाने कइसे आय गयल हईं, नाहीं त इहाँ उहै जुलाई के आखीर में लोग देखालन. उही दिनवे 31 जुलाई के साहित्यकार लोगे आवेलन. फोटोग्राफर औ मण्डली लेके. झाल हरमुनिया बजी, नाटक करेलन. केऊ केऊ भाषन देई. फेर कार्यक्रम समाप्त हो जाला.
- इहै कुछ ठीक ठाक हो जात इहां. बताईं एतना बड़ अधिकारी हईं आप सब, औ अंधेरे में घूमत हई. किसी ने मस्का लगाने का प्रयास किया.
फिर ग्राम वासियों से बड़े प्रस्ताव आने लगे. मैं नोट बनाता गया.
अंधकार और मच्छरों के कारण खड़े रहना मुश्किल हो रहा था.चलते चलते मैंने पूंछा कि प्रेमचंद जी के परिवार का कोई है यहां ? - इहां कहां सर, ओन्हे सबके गांव छोड़ले जमाना भयल. केहू ना आवेला. केहू दिल्ली में बा त केहू इलाहाबाद में.
- इहां बस हमही सब जोगवत हईं … किसी बुजुर्ग ने कहा. फिर हंसी हुई.
जुलाई के महीने में हमलोगों की लमही की दौड़ शुरू हो जाती थी. सरकार कोई भी हो, दोष सरकार का, कि वह कुछ नहीं करती. बहरहाल, हमलोगों ने सड़क बनवाई, तालाब ठीक कराया, पम्प लगवा दिया. ट्रांसफार्मर लगवा दिया, पोल लगवा दिये, तार खिंचवाया लाइटें लगवाई. बिजली का ग्रिड बदलवाया. लगने लगा कि कुछ परवाह हो रही है. प्रेमचंद जी के आवास की, जो जर्जर अवस्था में था उसका उसी मूल रूप में रेनोवेशन हो पाना, एक बड़ी समस्या थी. पिछले ठेकेदार ने छत की ईंट की बाउंड्रीवाल गिरने के बाद पाइप वाली रेलिंग लगाकर भवन का फ्रंट खराब कर दिया था.सुर्खी-चूने की जोड़ाई व छोटी इंटें कहां से लाई जाएं तो वह बिंदु फंस गया, फंसा ही रहा. छत गिर न जाए इसलिए हमारे चीफ इंजीनियर ने बल्लियों का स्थायी सपोर्ट लगवा दिया. ऐसी तकनीकी संस्था की खोज होने लगी जो भवनों के मूल स्वरूप को सुरक्षित करने का काम करती हो. उस समय तक कोई मिली नहीं.
उसी समय इस संस्थान के विचार ने जन्म लिया. सामने की जमीन में प्रेमचंद जी के खानदान के ही करीब तीस हिस्सेदारों के नाम थे. सोचा गया कि इसी भूमि का उपयोग किया जाए. फिर महीनों बीत गये सबको खोज कर उनकी सहमति लेते लेते. फिर एक नक्शा बना. काम कौन करे ? धन कहां से आए ? उस दौर में सरकारें रेस्पॉन्सिव कम हुआ करती थीं. जो अधिकारी वायदा कर दे, तो वह जानें. हम लोग आगे आगे चल रहे थे तो प्राधिकरण पर ही सारा दबाव बनने लगा. लेकिन लमही प्राधिकरण क्षेत्र से बाहर था. सड़क तालाब बिजली तो करा दिया गया लेकिन पूरा संस्थान तो भाई, सरकार ही बनवायेगी.
बसपा सरकार थी. कलक्टर साहब बहादुर के पास लमही छोड़ बाकी सब के लिए फुरसत थी. बहरहाल शासन को नक्शा आकलन सहित प्रस्ताव बनवाकर किसी प्रकार भिजवा दिया गया. इस बीच हम लोग कई बार आये गये. फिर प्रेमचंद जी की छोटी सी प्रतिमा के आगे खड़े होकर हमलोगों ने प्रार्थना की कि हे साहित्य सम्राट ! जहां तक ले आ सकते थे, वहां तक हम ले आये हैं. आगे अब आप देखना.
तो इस तरह हुई थी हमलोगों की प्रेमचंद जी से वह पहली मुलाकात ..!
फिर कुछ दिनों बाद जैसा अफसरों के साथ होता है, मैं ट्रांसफर हो गया. आगे क्या हुआ नहीं मालूम. ट्रांसफर के बाद फिर कभी लमही जाना हुआ ही नहीं. बनारस जाऊंगा तो चला जाऊंगा. डा. महेंदर चूंकि अब वाइस चांसलर हैं तो उनसे भी अनुरोध करता हूं कि उस दिन के लमही भ्रमण की याद में, हो सके तो अपने यहां एक प्रेमचंद पीठ की संभावना देख लें. जो भी संभव है वह किया जाये