स्मिता बाजपेयी ( एक जानी- मानी हिंदी भाषी लेखिका एवं कवियत्री हैं )

जब हमारे चंपक, नंदन ,बालक ,बाल भारती गुड़िया , चंदा मामा के दिन थे तो हम अपनी औकात से कई कदम आगे बढ़कर इंद्रजाल कॉमिक्स के ‘फैंटम’ और ‘मेंड्रेक ‘ को पढ़ रहे थे।
हम इस से भी आगे चौथी जमात में ही ‘राजन इकबाल सीरीज’ बाल उपन्यास पढ़ रहे थे। हममें पढ़ने की लत लग चुकी थी। हम पढ़ने के घोर व्यसनी हो गए थे। प्रचंड पढ़ाकू बच्चे !

क्या ‘आज’, ‘आर्यावर्त’ अखबार या क्या ‘दिनमान’ ‘धर्म युग’ ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ कुछ भी हमारे पढ़ने से नहीं रह जाता था। ‘इधर- उधर की झलकियां’ ,’दुनिया रंग बिरंगी’ , ‘बैठे ठाले’, ‘बच्चों का कोना’ से होते हुए हम कहानी, संपादकीय सब पढ़ डालते! पल्ले चाहे जो पड़े ना पड़े। हमें पढ़ना था! बस पढ़ना था!

उन्हीं दिनों धर्म युग में धारावाहिक ‘कपाल कुंडला’ आती थी हमने वह भी पढ़ लिया। उन्हीं दिनों उषा किरण खान की कोई कहानी पढ़ी थी जिसमें बाढ़ का वर्णन था। वह डरावना हिस्सा हमें याद रह गया और इतना याद रहा कि एक लंबे समय तक पानी जब भी घुटनों तक आता हम बच्चे डरने लगते कि अब तो वैसे ही गिरेगा सब कुछ.. अब तो वैसे ही हो जाएगा सब कुछ..

हमारे पाठ्यक्रम में एक अध्याय था ‘पटना में बाढ़ ,संकट का सामना’ इस शीर्षक से। इसने हमारे डर को और भी ज्यादा भयावह किया। लेकिन इसमें हम इस कल्पना से खुश होते कि कब ऐसा होगा कि हेलीकॉप्टर से हमारे छत के ऊपर ब्रेड के पैकेट गिरेंगे बाकी चीजें तो देखी नहीं थी मगर कल्पना के घोड़े खूब दौड़ते थे उन दिनों।

इस तरह हम बहुत पढ़ने वाले बच्चे थे। हम पढ़ते ही रहते थे। कुछ भी पढ़ते रहते थे। आंखों के आगे जो गुजर गया देवनागरी लिपि में, हमने वह सब पढ़ना था। और कोढ़ में खाज की तरह वह सब कुछ हमें याद भी हो जाता था खासकर दीवारों पर,पोस्टरों पर लिखा हुआ!

तो हम सब पढ़ते थे। दीवारों पर! पोस्टरों पर !स्टेशनों पर! मूंगफली का ठोंगा खोलकर! प्लेटफार्म के जमीन पर नीचे चिपका अखबार के टुकड़े को! गरज यह कि हम दुर्घष , दुर्दम्य ,दुर्दांत टाइप के पढ़ाकू हो चुके थे।

कुछ बातें हमें आज भी आश्चर्य में डालती हैं कि वह आज तक बदली ही नहीं। जैसे दीवारों पर छपे एक खास शफेखाने के ‘वैद्य इमरान!’आज भी वही हैं! रोग भी सारे वही। कुछ भी तो नहीं बदला। आज भी पहले ही की तरह बदस्तूर स्टेशन , शहर की खाली दीवार और हर जगह सफेद पेंट से चिपके हुए हैं- वैद्य ईमरान !

तब हमारी ट्रेन से यात्राएं बेतिया और बगहा तक ही होती थीं। ट्रेन को हम बहुत प्यार से छुक-छुक गाड़ी कहते थे और ट्रेन की रफ्तार भी तब टुकदुम-टुकदुम ही होती थी। बैठने की सीट लकड़ी की होती थी जिस पर अखबार बिछा कर न बैठो तो खटमल बैठने नहीं देते थे। खिड़की पर बहुत सारी साइकिलों के हैंडल बंधे होते थे जिसे हम ऊब कर बजाने लगते थे। कभी-कभी साथी बच्चों से घंटी बजाने की प्रतियोगिता में साइकिल मालिक से डांट भी सुन लेते थे। हमारे सहयात्रियों में बकरियां भी होती थीं। जो हमेशा गेट पर डटी मिमियाती रहती थीं। यह बीच में किसी हाल्ट पर उतरती थीं। ट्रेन में खूब भीड़ होती थी। पर इस भीड़ में चटपटे लेमन चूस वाले, नारंगी गोली वाले भी चढ़ते थे।इस भीड़ में कोई सूरदास खजड़ी बजा के गाते थे। तो कोई दो पत्थर को उंगलियों में फंसा कर बड़े अच्छे से बजाते हुए गाना गाता था-
बन में लकड़ी, जग में लकड़ी देख तमाशा लकड़ी का’
और इस भीड़ में अखबार पत्रिका वाले भी चढते।नेलकटर , चेन, लॉकेट, पेन और बाल मनोहर पोथी और जनरल नॉलेज की किताबें बेचने वाले भी। वह चिल्ला चिल्ला कर बताते की कोई भी दो चीज खरीदने पर एक ‘सायरी’ की किताब बिल्कुल मुफ्त में दी जाएगी। सायरी ? सेर? यह क्या चीज है ?मैं और दीदी एक दूसरे को चमकती आंखों से देखते। हमारे भीतर का पढ़ाकू प्रेत जाग जाता। पर कहने के बाद भी उनमें से कोई चीज हमारे लिए नहीं खरीदी जाती और इस तरह हम मुफ्त वाली सायरी से, सेर से वंचित रह जाते थे..

खैर ‘बाल मनोहर पोथी’ और ‘जनरल नॉलेज’ की किताब से बाद के दिनों में हमने अपना ज्ञान बढ़ाया था। जिसमें दुनिया का सबसे बड़ा प्लेटफार्म सोनपुर था। सबसे बड़ा मार्केट पटना का हथुआ मार्केट। बटन उद्योग के लिए मेहसी और सिल्क के लिए भागलपुर था।

हम इस तरह बहुत दिनों तक ज्ञानी बच्चे रहे। तो ऐसे ही हमारे ज्ञान पिपासा बढ़ती रही। कुछ भी पढ़ती रही और हम हॉस्टल जाने योग्य भी हो गये। यानी पांचवी पास। हमारा ज्ञान भी बहुत बढ़ गया था अभी तक। लत अभी तक बरकरार थी वैसी की वैसी ही- प्रचंड! दुर्निवार ! दुर्दमनीय!
बस अब हम हिंदी मीडियम के बच्चे स्टेशन के नाम जोर से पढ़कर आपस में ही नहीं बताते थे कि हम अंग्रेजी में पढ़े हैं। लेकिन सेर और वह मुफ्त की सायरी वाली किताब हमें अभी तक नहीं मिल पाई थी। मैं और दीदी दो परम ज्ञानी बहनें उस मुफ्त की सायरी के लिए तड़प -तड़प जाती थीं…

एक बार हरिद्वार से देहरादून जाने के लिए हमें बस में बैठना पड़ा। बस कंडक्टर सवारी के लिए वाज्जे दे रहा था चलो ..चलो ..डोईवाला ..र्रायवाला .. हर्रा वाला ..घंटाघर.. पलट्टन चलो.. आ जाओ .. चलो..
हम अनमने से घर की याद में मुँह लटकाए इधर-उधर देख रहे थे कि एक बंदा एक हाथ में चेन की झालर पहने, गले में पेन ,की रिंग का पट्टा लटकाए हाथ में कुछ पतली किताबें लिए चढ़ता है और क्या अदा से बोलता है-

” आसमान में बादल, बादल के लच्छे-लच्छे” इसे वह तीन बार दोहराता है और इस दोहराव में ही हम लोग उस की ओर देखते हुये उसके इस अदा के गिरफ्त में हैं। इस शेर पढ़ने के ऊपर सम्मोहित हो चुके हैं.. और फिर वह आगे कहता है
“तू क्या चीज है मैंने देखे हैं अच्छे-अच्छे”
हमें हँसी आई, दबा लिया। सभ्यता का तकाजा था ।और अब हम आठवीं में थे। मगर उसने फिर अगला शेर पढ़ा और बस हमने तुरंत अपने पॉकेट मनी से पांच का नोट निकाल के मुट्ठी में रख लिया। और पास आने पर एक रुपये में वह सायरी की किताब खरीद ली।

उस किताब से बहुत से ‘सेर’ खुद भी बनाए गए। ग्रीटिंग कार्ड पर लिखे गए। चिट्ठियों में सहेलियों को लिखे गए ।सहेलियां भी धन्य हुईं। हॉस्टल में किताब की धूम रही। और हम हीरो- हीरोइन की तरह अकड़े अकड़े रहे।

कुछ नायाब शेर पुनः बटोरे गए हैं सहेलियों के ग्रुप से। उनमें से कुछ सहेलियों को लिखे जाने वाले शेर हैं;

हरे भरे बाग में तोता करे पुकार
सुमन तेरी याद में जीना है बेकार ।

केले की पत्ती को झुकाऊं कैसे
रूठी हुई सहेली को मनाऊं कैसे।

मखमल की फ्रॉक कूट-कूट के धोऊं
सहेली तेरी याद में फूट- फूट के रोऊं ।।

चांदनी रात में खीर बनती हूंँ
– – की याद में आंसू बहाती हूंँ।।

शीशी भरी गुलाब की पत्थर पर फोड़ दूं
ऐसी गंदी सहेली को जंगल में छोड़ दूं।।
(यह गुस्से में)
इतना ही नहीं बहुत प्यार से लिखा जाता था;

चली जाना चिट्ठी चमकते- चमकते
दीदी/ जीजा/ सहेली को कहना नमस्ते नमस्ते।।

पत्र के अंत में लिखा जाता था;
हाथों में फूल, फूलों में कांटा
आज के लिए बाय-बाय कल के लिए टाटा।।

कुछ दीदी जीजाजी के लिए भी शेर थे जो हमारी किस्मत में नहीं थे। हम नहीं भेज सके अपने जीजा को..

छन्नी उपर छन्नी,छन्ने ऊपर छन्ना
दीदी मेरी हेमा मालिनी जीजा राजेश खन्ना।।
इस सेर को हम आज तक नहीं भेज सके, हाय..!

लेकिन कुछ ऐसे भी जालिम शेर थे जो किसी को नहीं भेजे जा सके;

लिखता हूंँ खते खून से ,स्याही मत समझना
मरता हूंँ तेरी याद में, जिंदा मत समझना।।

गरम-गरम जलेबी से रस टपकता है
प्यारी तेरी याद में दिल धड़कता है।।

इस कदर बेजार हूंँ मैं तेरी जुदाई से
की चींटी खींच लेती है मुझको चारपाई से।।

और अब आखिर में उन लोगों के लिए जिन्हें मेरी पोस्ट से कोफ्त हुई है। जो चिढ़ गए हैं और मेरी बुद्धि पर तरस खा रहे हैं, और मारे गुस्से से सभ्यता के तकाजे से जैसे मुझे कुछ कह नहीं पा रहे हैं उनके लिए भी यह एक नायाब शेर है-

गुस्सा ऐसा कीजिए छन में होय कमाल
जामुन सा मुखड़ा तुरत, होय टमाटर लाल।।

यह वर्षों से पढ़ने का दबा – कुचला प्रेत था साथियों! फेसबुक पर पढ़ते पढ़ते टप्पा खा गया।

कि करां.. रोक सको तो रोक लो भई रे..!

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