भारत के चर्चित- यायावर सम्पादक अनिल भाष्कर के साथ

(पहला सप्ताह)

पहला दिन

एक पंडित ने मेरी कुंडली बांचते हुए कहा था- आपके पैर स्थिर नहीं रहेंगे। यायावरी स्थायी प्रवृति रहेगी। तीन दशक की पत्रकारिता में तबादलों की पूरी श्रृंखला जी। अखबारों की चाकरी से मुक्ति के बाद भी घूर्णन बल कम नहीं हुआ। तबादले खत्म तो घुमक्कड़ी शुरू। इस यायावरी की नई कड़ी में अब अपन दिल्ली से कन्याकुमारी तक सड़क नापने निकल पड़े हैं। यात्रा का पहला पड़ाव ग्वालियर। अगला सागर (मध्यप्रदेश)। अब कोई यह न कहे कि इस यात्रा के लिए अपन को राहुल गांधी की भारत जोड़ो या भारत जोड़ो न्याय यात्रा ने उकसाया है।

दूसरा दिवस

यात्रा के दूसरे दिन अपन ग्वालियर से 325 किलोमीटर तय कर सागर पहुंच गए। यहां सिर्फ रात्रि विश्राम, ताकि आगे की यात्रा के लिए ऊर्जा संचित की जा सके। मध्यप्रदेश के पहले विश्वविद्यालय की स्थापना का गौरव रखने वाले इस शहर को निहाल शाह के वंशज ऊदन शाह ने 1660 में बसाया था। तब यह एक छोटा सा गांव होता था जिसका नाम था परकोटा। वही छोटा सा गांव विस्तार पाकर आज सागर के नाम से जाना जाता है। दरअसल 1735 में जब परकोटा पेशवा के आधिपत्य में आया तब परकोटा के किनारे स्थित विशाल सागर झील (लाखा बंजारा झील) के नाम पर इसका नाम सागर पड़ा। परकोटा अब झील के करीब एक मोहल्ला है। पर्यटन के हिसाब से झील और भपेल के अलावा और कोई ऐसी जगह सागर में नहीं दिखी, जो आपको आकर्षित कर सके। शहर के पुराने इलाकों में ट्रैफिक जाम एक स्वाभाविक संकट है। हां, लोग बड़े सज्जन और सहयोगी मिले। अगला पड़ाव अब नागपुर।

तीसरा दिन

सागर से नागपुर। 320 किलोमीटर का सफर। 7 घण्टे की ड्राइव। पर संतरे मिले, न शाखा। हां, किलो के भाव केले जरूर मिल गए। नागपुर में वक्त कम मिला। इस कम वक्त में भी दीक्षा भूमि देखने की लालसा नहीं त्याग पाया। इसने लुभाया भी खूब। कहते हैं इसी भूमि पर बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान हुआ। भीमराव अंबेडकर ने इसी भूमि पर 1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था। हर साल लाखों बौद्ध तीर्थयात्री दीक्षा भूमि की यात्रा करते हैं। 14 अक्टूबर को यहां धम्म चक्र परिवर्तन दिवस पर मनाया जाता है। यही वह तारीख है जिस दिन अंबेडकर ने धर्मांतरण किया था। इसे सम्राट अशोक विजयादशमी के रूप में भी मनाया जाता है।
अब अगला पड़ाव हैदराबाद

चतुर्थ- पंचम दिवस

नागपुर से हैदराबाद। 500 किलोमीटर का सफर। 10 घंटे की ड्राइव। मौसम में बदलाव तो ग्वालियर के बाद ही महसूस होने लगा था। हैदराबाद आते-आते तो जेठ- बैसाख वाली तपन से सामना हो गया। हम भी कहां हार मानने वाले। चिलचिलाती धूप में भी खूब सैर-सपाटा रहा। नवाबों के शहर में नवाबी तो बनती थी। हुसैन सागर झील में बोटिंग। झील के बीचो-बीच स्थित बुद्ध स्मारक पर नमन। आंध्र-तेलंगाना में भगवान की लोकमान्यता प्राप्त कर चुके पूर्व मुख्यमंत्री एनटी रामाराव की समाधि पर श्रद्धाजंलि। वेंकटेश्वर बिरला मंदिर में दर्शन-पूजन। एनटीआर गार्डन में चहलकदमी। चारमीनार क्षेत्र की रेलमपेल का लुत्फ। थोड़ी शॉपिंग-वॉपिंग। और अंत में हैदराबादी नाइट लाइफ की मस्ती। कुल मिलाकर हमने हैदराबाद को ऐशबाग बना डाला। हां, श्रीमती जी ने यहां भी ब्रह्मकुमारी आश्रम ढूंढ ही लिया। पर सबसे खास बात यह कि रात हुसैन सागर झील के किनारे रोशनी में नहाई भव्य इमारत जो किसी राजमहल का आभास करा रही थी, दिन के उजाले में तेलंगाना सचिवालय निकली। इसी सचिवालय के बराबर में खड़ी बाबा साहब अम्बेडकर की विशाल प्रतिमा सामाजिक समन्वय और जनजागरण का संदेश अपने अंदाज में बयां कर रही थी। यह बात अलग कि बच्चे से लेकर बूढ़ों को आजीविका के लिए असाध्य श्रम के भरोसे छोड़ दिये जाने का कड़वा सच सूबे के ग्रामीण से लेकर शहरी इलाकों तक हर तरफ नज़र आया। इस पर विस्तार से चर्चा बाद में।
फिलहाल अगला पड़ाव पांडिचेरी के रास्ते में कडपा/तिरुपति (आंध्र प्रदेश)।

छठा दिवस

हैदराबाद से नेल्लूर। 460 किलोमीटर का सफर। 8 घंटे की ड्राइव। यात्रा मार्ग में थोड़ा बदलाव। अब पांडिचेरी का सफर कडापा की बजाय नेल्लूर और तिरुपति के रास्ते। हैदराबाद के मुकाबले नेल्लूर में गर्मी कम है, मगर एसी बिना रात में भी गुजारा नहीं। देर रात होटल पहुंच पाए, लिहाजा शहर को ज्यादा एक्सप्लोर करने का मौका नहीं मिला। हाइवे शानदार मगर शहर का ट्रैफिक यहां भी बेतरतीब। लोग बेहद सुलझे हुए। मददगार। बस हिंदी और अंग्रेजी दोनों में हाथ तंग है इनका। तेलुगु जिंदाबाद।
अगला पड़ाव तिरुपति।

सातवां दिवस

नेल्लूर से तिरुपति। 150 किलोमीटर का सफर। साढ़े तीन घंटे की ड्राइव।
लगभग आधा रास्ता तय करने के बाद गुडूर से तिरुपति तक हाइवे की सेहत खराब मिली। टू लेन का फोर लेन में विस्तारीकरण चल रहा है। लिहाजा जगह जगह डायवर्सन, सिंगल रोड ट्रैफिक, बीच में शहर-कस्बे की भीड़भाड़, थोड़ी थोड़ी दूरी पर ऊंचे और बेतरतीब स्पीड ब्रेकर ड्राइविंग को थकाऊ और उबाऊ बनाते हैं। खैर।
चूंकि दिल्ली से चलते समय तिरुपति यात्रा के पड़ावों में शामिल नहीं था, लिहाजा दर्शन के लिए ऑनलाइन प्री-बुकिंग नहीं किया था। होटल वाले ने बताया कि अब यहां सुबह चार बजे एपीएसआरटीसी के काउंटर से टोकन लेना पड़ेगा। फिर आवंटित दर्शन समय के अनुसार आगे मंदिर तक 30 किलोमीटर की यात्रा।
यात्रा की शुरुआत के बाद से आज पहला दिन था जब दोपहर के भोजन के बाद लेटने का मौका मिला। अच्छा लगा। शाम पद्मावती मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद प्रसिद्ध पीएस4 रेस्टोरेंट में डिनर। आज जल्द सोने की तैयारी ताकि सुबह टोकन के लिए समय से जाग सकें। सबकुछ व्यवस्थित रहा और बालाजी ने समय से दर्शन दे दिए तो कल का पड़ाव पांडिचेरी।

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