आर विक्रम सिंह
(लेखक पूर्व सैन्य अफसर/ पूर्व आईएएस हैं)

आपके पास धन हो और प्रबल राष्ट्रदृष्टि हो … ऐसा कहां होता है. क्रांतिकारियों को धन चाहिए था. मजबूरी में उन्हें ट्रेन से अंग्रेजों का खजाना लूटना पड़ा. जिसे हम काकोरी कांड के नाम से जानते हैं. वे क्रांतिकारी थे, कोई पेशेवर डाकू तो थे नहीं, पकड़ लिए गये. कोई बिड़ला कोई डालमिया या कोई भी अनाम भामाशाह उन्हें धन दे रहा होता तो क्रांतिकारी आंदोलन नये स्तरों पर जाता. पर देश का जनमानस गांधी को महात्मा मान कर उधर चला गया. जज्बा हो, विचार हो पर धन न हो तो कुछ न हो पाएगा. यह बड़ा संकट है. प्रत्येक क्रांति, प्रतिबद्धताओं के साथ धन संसाधन की मांग भी करती है.

चर्च हैं दुनिया भर में, वे भारत में धर्मपरिवर्तनों के लिए बेतहाशा धन भेजते हैं. ग्रांट लगातार आ रही है. सिर्फ सबग्रांट पर रोक लगी है. हवाला तो है ही. धर्मपरिवर्तनों के प्रतिकार के लिए न तो कोई संस्था है न अभियान. मंदिरों का धन इस प्रतिकार में लग सकता है. लेकिन कहां ? यह उनके उद्देश्यों में अंकित ही नहीं है. वे तो सबको यही कहते आए हैं कि किसी को हिंदू धर्म में दीक्षित होने की व्यवस्था ही नहीं है. वे क्या करें ? मजबूरन वे चढ़ावे के धन से, मठों की जमीनें बिल्डरों को बेचकर पजेरो फारच्यूनर खरीद रहे हैं. दक्षिण भारत के मंदिरों का धन हिंदूविरोधी सरकार के खजाने में जा रहा है.

संविधान हमारा है लेकिन वह राष्ट्रवादी अभियानों का, सांस्कृतिक जागरण का संवाहक व पक्षधर न होकर निर्विकार है. संविधान की कोई संस्कृति नहीं है. वह धर्मनिरपेक्ष है. हमारा संविधान उस भारतीय जनता की तरह है जो शताब्दियों से कहती रही है, ‘कोउ नृप होहिं हमहि का हानी.’ एक समझौते से समझौतापरस्तों को 1947 में दिये गये सत्ता हस्तांतरण को आजादी मानने के संकट अलग हैं.

देश के संघर्ष, बलिदान, महान् धर्म परंपरा के बावजूद भी कोई राष्ट्रीय कोर समूह विकसित ही नहीं हुआ जो राष्ट्रीयता व सांस्कृतिक भारत के सशक्तीकरण के प्रति समर्पित हो और राष्ट्रशत्रुओं को लक्षित कर सके. जो विदेशी मजहबों द्वारा सृजित राष्ट्रशत्रु समूह व उनके स्थानीय सत्तालोलुप सहयोगी है, वे तो हमें तोड़ रहे हैं और हम है कि उनसे सहअस्तित्व के लिए बेचैन हैं. भाई भाई भाई भाई. उनकी किताबों में तो आप ही तो लूट के, धन उगाही के, बलात् धर्मपरिवर्तन के लक्ष्य हैं. भाई तो हो ही नहीं सकते. हमारी बहनें, बेटियां उनके लिए माले गनीमत हैं. वे नहीं चाहते कि उनकी किताब में जो लिखा है उसे लोग जानें और लोग उनके लक्ष्य को जानने लगें.

         दरअसल नूपुर शर्मा के विरोध का संकट यही था. नूपुर ने कोई असम्मान नहीं किया. बल्कि जो कहा वह शिव के असम्मान के प्रतिकार में ही कहा. समस्या यह हुई कि जो बात कहने का इशारा किया वह पवित्र पुस्तक में लिखा हुआ है. मूल संकट यही है. कि किताब पढ़ो मत, न उसका सन्दर्भ या उद्धरण दो. अर्थ तो बिल्कुल मत जानो. वे तो अपने समाज को भी अपनी पुस्तकों का अर्थ नहीं बताते. अनुवाद मूल से अलग जानबूझकर किये जाते हैं. उनकी समस्या यह है कि यदि इस 'नूपुर शर्मा फेनोमेनन' को रोका नहीं गया तो जनता से छिपी मजहबी जानकारियां आम हो जाएंगी. उनका खुद का संकट अनियंत्रित हो जाएगा. इसलिए पहले ही हल्ले में  आतंक का इतना माहौल बना दो कि हम वापस समझौतापरस्तों के कांग्रेसी युग में पहुंच जाए. बहरहाल, हमारे लिए उनकी उस मजहबी मंशा है वह जानना व उससे सावधान रहना जरूरी है. जिसे वे मानने को बाध्य हैं.

      हमने देखा है कि विश्व के सशक्त राष्ट्रों में एक कोर समूह होता है जो उस राष्ट्र को बिखरने-विभाजित नहीं होने देता. जैसे चीन में हान सामाजिक-जातीय समूह, रूस में रूसी जातीय आर्थोडॉक्स क्रिश्चियन समूह, जरमनी में जर्मन राष्ट्रवादी, पाकिस्तान में सुन्नी-पंजाबी वर्ग आदि आदि. अब हमारी समस्या है... देश में जातिवादी विभाजन ने एक कोर राष्ट्रवादी समूह की संभावना का क्षरण कर दिया है. हिंदू समाज राजनैतिक-सामाजिक विभाजन का शिकार है. एकीकरण की सीमित क्षमताएं ही दिख रही हैं. जो दिखते भी हैं वे जातीय दृष्टि से बाहर सोच नहीं पाते. इतिहासजीवी बन कर अपनी जातियों की श्रेष्ठताओं में डूबे हुए हैं. जातियों व जातीय राजनीति ने सबका अपना अपना भारत बना दिया है. हमें अपने शक्तिशाली ऐतिहासिक समाजों यथा राजपूतों, मराठों, गोरखाओं, सिखों आदि के नायकों के गुणों के वस्तुनिष्ठ अध्ययन को उन समस्त समाजों के साथ जोड़ देना है जिसमें धार्मिक देवताओं के अतिरिक्त कोई जातीय नायक नहीं है. धर्म ही जिनका आधार है, राम कृष्ण ही जिनके नायक रहे हैं. और यही तो वह मुख्य भारत है जो हाशिए पर रहा है, उसे ही तो सशक्त करना है. राष्ट्रीय शक्ति वहीं से आकार लेगी.  हम 'सर तन से जुदा' जैसे आतंकियों, राष्ट्रविरोधियों और उनके सत्तालोलुप सहयोगियों की मंशा को समझें. राष्ट्रवादी राजनीति का संकट यह है कि वे भी सत्ता को ही अंतिम साध्य मान लेते हैं. जबकि सत्ता एक माध्यम या साधन है. लक्ष्य तो अभी बहुत आगे हैं.

हमारी समस्या का दूसरा पक्ष है कि जो भी प्रतिबद्ध या कोर भारत-समूह को कैसे चिन्हित व सशक्त किया जाये. क्या आप उस कोर राष्ट्रीय समूह के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं जिसमें चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल, भगत सिंह, लाहिड़ी, दुर्गा भाभी थे ? वीर सावरकर को पढ़ा है आपने ? कभी मेजर शैतान सिंह और अपने बहादुर सैनिकों को रेजांग ला में चीनी सेना के सामने बलिदान का आखिरी मोर्चा लगाते देखा है ? अपने शोषित समाज की पीड़ाओं को समझा, आत्मसात किया है ? आप कहीं जातीय अभिमान में डूबे, राष्ट्र के महापुरुषों को अपनी जातियों के खांचे में बांट कर उनके साथ अपना जिंदाबाद करने वाले लोग तो नहीं हैं ? राष्ट्र, समाज, धर्म व संस्कृति के लिए हममें प्रबल प्रतिबद्धता होनी चाहिए. अन्यथा कोई कोर समूह ही आकार न ले पाएगा.

    देश के पास कोई फार्मूला नहीं है बल्कि एक दृष्टि अवश्य है जो आजादी के आंदोलन से बहुत पहले से चली आती है. यदि हम प्रतिबद्ध कोर समूहों को चिन्हित कर ले जाएंगे तो उनके आपसी साममंजस्य, सहयोग, तालमेल कैसे बनाया जाएगा ? यहां इस सशक्त संगठनात्मक संस्थागत कार्य में क्षमतावान व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी. इस संगठन के अस्तित्व में आने पर हमारी समस्याओं के अंतिम समाधान व विकल्पों की चर्चा हो सकेगी. विचारों के परंपरागत माध्यम यथा रेडियो समाचारपत्र महत्वहीन होते जा रहे हैं. टीवी, सोशल मीडिया प्लेटफार्म की शक्ति कहीं अधिक प्रभावी हो चुकी है. रातोरात समाज नायक तलाश ले रहा है. रातोरात हीरो खलनायक हो जा रहे हैं. भविष्य की संभावनाएं असीम हैं. सारे राष्ट्र समाज की शक्ति को केंद्रित कर पाना, परिवर्तन की मुहिम चला देना एक लोकप्रिय नायक के लिए बहुत सरल भी है. यहीं से समाज को बदलने की, उसके एकीकरण की, पूर्वाग्रहों से मुक्ति की संभावना बनती दिखाई दे रही है.

     संकट यही व्याप्त है कि वह प्रतिबद्धता, वह भविष्यदृष्टि, वह कर्मठता, वह विवेकपूर्ण भारतीयता कहां है..? कैसे उन चरित्रों को खोज ले आयें, कैसे उनके प्रतिरूप बना बना कर खड़े कर दें..? समुद्र मंथन में जब हलाहल आया और सृष्टि दग्ध होने लगी तो देवता-दानव आतंकित होकर समुद्र मंथन का कार्य वहीं रोक सकते थे. चलो, जो मिला वही भाग्य था. लेकिन वे रुके नहीं, मंथन सम्पूर्ण कष्टों के बाद भी लगातार चलता रहा. वे वहांं भी रुक जाते जब समृद्धि वैभव धन की प्रतीक लक्ष्मी माता का आगमन हुआ कि अब तो और कुछ नहीं चाहिए, बहुत हो गया है. लेकिन वह मंथन तब तक चलता गया जब तक कि अमृत तत्व प्रकट नहीं हो गया.

और हमारा समुद्र मंथन तो अभी विधिवत प्रारंभ भी नहीं हुआ.. कैसी आजादी है जिसमें समग्र एकराट् भारतीयता की दिशा ही विभाजित रही, तय ही न हो सकी ? यह आजादी अपने साथ कायर सुविधाजीवियों का राज कहां से लिए आ गयी ? इस आजादी का लक्ष्य राष्ट्र को खण्डित विभाजित करना, जातीय आग्रहों, पूर्वाग्रहों का बंधक बनना तो नहीं था. यह प्रतिबद्धता हमें अपनी संचेतना ही नहीं अपने अवचेतन में भी, संस्कारों में, अपने डीएनए में सदा के लिए उतारनी है. समाज के बिखरे धागों को किसी रफूगर की तरह इस तरह जोड़ देना है कि एक संयुक्त स्वरूप निखर कर सामने आए.

जब तक धर्म-संस्कृति की पृष्ठभूमि में गहन समुद्र मंथन से प्रतिबद्ध सशक्त राष्ट्रवाद, सामाजिक एकीकरण का अमृत न निकले तब तक स्वतंत्रता के समुद्र मंथन से हमारे विश्राम का कोई औचित्य नहीं बनता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *