माफिया, पांडु की जमीन से कब्जा छोड़ो

ब्रजेंद्र प्रताप सिंह


ब्रजेंद्र प्रताप सिंह
( लेखक पांडु नदी बचाओ अभियान के संयोजक हैं और दो दशक से पत्रकारिता में हैं, जल, जंगल, जमीन के आंदोलनों में सक्रिय हैं।)

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दक्षिणी कानपुर की छोटी नदी पांडु पर यह बड़ा आरोप है कि उसकी बाढ़ ने किनारे के गांवों और शहरी मोहल्लों में कहर मचा दिया है। हजारों घर पानी में घिर गए, लोगों को राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी। जन-पशु जीवन अस्त व्यस्त हो गया। बारिश के दिनों में बाढ़ से बदहाल हुए लोगों की नज़र में नदी गुनाहगार की तरह कठघरे में खड़ी है और लोग पीड़ित भाव में हैं। जरा सोचिए, क्या सच यही है?
कन्नौज जिले की एक झील से निकलकर फतेहपुर की गंगा में समर्पित हो जाने वाली यह शांत और छोटी नदी सदानीरा है, सिर्फ बरसाती नहीं। साल भर बहती रहने वाली पांडु कानपुर देहात होते हुए पनकी-गुजैनी, बर्रा, मेहरबानसिंह का पुरवा, नौबस्ता होते हुए दक्षिण फतेहपुर की तरफ निकल जाती है। पांडु का रास्ता नया नहीं है। हां, उसके आसपास बसावट नई है। वह अपने उद्भव से अनवरत बह रही है, बड़ी बड़ी बरसातें झेली हैं। बाढ़ से उसके तट का कोई गांव कभी उजड़ा नहीं। पर अब शहरी आबादी मुश्किल में आ गई है। ऐसा क्यों हुआ?


बढ़ते शहर में आवासीय जरूरतें पूरी करने के लिए कानपुर विकास प्राधिकरण ने 1980 के दशक में विश्व बैंक से पोषित विश्व बैंक कालोनी बर्रा और गुजैनी में बसाई। 1990-95 तक नदी के किनारे तात्याटोपेनगर, रविदासपुरम से लेकर दर्जनों मोहल्ले बस गये। पांडु बहती रही, बारिश हुई पर ऐसी तबाही कभी नहीं हुई। बीते तीन दशकों में दक्षिण कानपुर में अनियोजित निर्माण की बाढ़ आई, और नदी तट तक अवैध कब्जे हुए। शहर की सीवर प्रणाली भी वक्त के साथ ध्वस्त होती गई। 4 बड़े नालों के जरिये शहर का बरसाती पानी और अधिकांश सीवर पांडु नदी में डाला जाने लगा। मेहरबान सिंह का पुरवा के पास सबसे बड़ा रफाका नाला समस्या की बड़ी जड़ है। यह नदी के साथ अन्याय का यह जीता जागता उदाहरण है। जहां पांडु में रफाका नाले का सीवर मिलता है, उससे 3 किलो मीटर पहले पनकी के थर्मल पॉवर हाउस से निकलने वाली राख एक नाले के जरिये नदी में छोड़ी जाती रही। कागजो पर यह व्यवस्था थी कि पावर हाउस से निकली राख बड़े तालाबों के जरिये अलग कर ली जाएगी, सिर्फ बचा हुआ पानी पांडु में जायेगा। पर ऐसा हो न सका। ठेकेदारों और अफसरों ने करोड़ों रुपये का भ्रष्टाचार किया और बिना राख निकाले ही राख मिला पावर हाउस के ब्यालर का गर्म पानी पांडु में छोड़ते रहे। पनका गांव का वह स्थान जहाँ पावर हाउस का नाला नदी में मिलता है, हकीकत में वह नदी का कत्लगाह है। ‘पांडु बचाओ अभियान’ की सर्वे रिपोर्ट नदी के साथ हुए अन्याय का खुलासा करती है। कन्नौज से आई नदी में पनका गांव के पहले तक ऐसा पानी है जिसमें लोग नहाते रहे, पशु पानी पीते रहे और खूब मछलियां हैं। जैसे ही हंसती- बलखाती नदी शहर आती है, वह मर जाती है। उसके अंदर जलीय जीव-जंतु समाप्त हो जाते हैं। यहीं से नदी की तलहटी में राख जमनी शुरू हुई और एकता पार्क के पास बने डॉट पुल के नीचे राख के ढेर स्पस्ट रूप से दिखने लगे। पुल के नीचे राख के ढेर लगने से नदी यहां पर सिमटकर एक किनारे से बहने लगती है। जैसे ही रफाका नाला शहर भर का सीवर लेकर पांडु में मिलता है, पानी पर सीवर की धारा हावी हो जाती है। नदी सिमट जाने से उसकी खाली जमीन पर छोटी धाराएं अलग अलग हो गईं एक बड़े हिस्से में पानी का वेग खत्म हो जाने से राख के पठार बन गए। पिछले 10-15 वर्षों में नदी की जमीन पर माफिया की नजर लग हुई थी। मेहरबान सिंह पुरवा के निकट नदी के एक तरफ कई सौ मीटर पक्की दीवार बनाकर उसकी धारा का रुख मोड़ दिया गया और हजारों बीघा जमीन पर कब्जा कर ली गई। इससे चौड़ाई में बहने वाली नदी और सँकरी हो गई। कानपुर विकास प्राधिकरण, जिला प्रशासन पहले तमाशबीन बना रहा। जब ‘पांडु बचाओ अभियान’ के लोगों ने शिकायत दर्ज कराई तो जांच हुई, स्वीकार किया गया कि कब्जा हुआ है पर कार्रवाई नहीं की गई। नदी की जमीन पर कब्जा करने वालों में सत्ता तन्त्र से जुड़े नेता शामिल हैं, स्थानीय लोग सब जानते हैं, सिर्फ सरकार के अफसरों को छोड़कर।


नदी के साथ हुए अन्याय को देखिए। उसकी जमीन पर अतिक्रमण हो गया। उसकी धारा पर कब्जा करके उसके बहाव की जगह छीन ली गई। उसके किनारे बांध दिए गए। नदी की कोख में पनकी से लेकर फत्तेपुर गांव तक कई मीटर ऊंचाई तक राख भर दी गई। कानपुर से फतेहपुर में गंगा में मिलने तक उसे
सीवर ढोने वाला नाला बना दिया गया। क्या नदियां इसीलिए होती हैं?


वर्ष 2003 में ‘ पांडु बचाओ अभियान’ के साथ डीबीएस कॉलेज के शोधार्थियों की टीम, प्रदूषण नियन्त्र बोर्ड के अफसरों और किसानों ने नदी के हालात देखे और कई पार्षदों ने नगर निगम सदन में यह मसला उठाया। फिर भी कोई एक्शन नहीं हुआ। अब नदी तबाही मचा रही है तो त्राहिमाम है।


यह हालात एक दिन में नहीं आये। पिछले तीन दशक से दक्षिण कानपुर जल भराव की समस्या से जूझ रहा है। बारिश का पानी रफाका नाला, पनकी नाला, बिनगवा समेत अन्य नालों के जरिये पांडु में जाता है, मगर राख और सीवर के कारण नदी की तलछटी कई मीटर ऊंची हो गई और उसकी जल सम्भरण क्षमता समाप्तप्राय हो गई। इसलिए बारिश में यह सभी नाले ‘ओवर’ और ‘बैक फ्लो’ का शिकार होते हैं। नतीजा, दक्षिण के मोहल्लों में भारी जल जमाव, घरों की नींव और सड़कों का बड़ा नुकसान। जन जीवन अस्त व्यस्त। करोबार चौपट।


पांडु नदी की धारा पर कब्जा होने, कोख में राख होने के कारण तटीय गांवों में बाढ़ से राख खेतों पर जमा होती गई। गेंहू, सरसों की फसल के साथ सब्जियों की पैदावार गिरी। पनकी तक जलीय जीव-जन्तुओं से गुलजार रहने वाली नदी शहर आते ही मर गई और हम अफसर-नेता खामोश बैठे रहे। दक्षिणी कानपुर से आगे बढ़ते ही मुर्दा हो गई। उसके लगभग जहरीले हो गए पानी ने नदी के किनारे गांवों में खेती चौपट हो गई। फतेहपुर की सैकड़ों बीघा लाल मिर्च की खेती बर्बाद हो। गर्मी के दिनों में पांडु के राख और मलबे वाले पानी के कारण पम्पिंग सेट से सिंचाई व्यवस्था चौपट हो गई। मगर कानपुर से फतेहपुर तक कभी बाढ़ के कारण तबाही नहीं हुई क्योंकि शहर के बाहर नदी को फिर बहने के लिए पूरा रास्ता मिल गया।


जिस वक्त कानपुर में गंगा बचाओ के नारे लगते हों, उस वक्त गंगा की ही सहायक नदी पांडु का मृतप्राय हो जाना, हमारी समझ पर सवाल उठाती है। नदी की जमीन से कब्जा हटाना, उसकी जमीन की सीमा तय करके बोर्ड लगाना, तट पर पौधरोपण, नदी की कोख में भरी राख और गाद की सफाई जरूरी है। उसमें सीवर गिराना बन्द हो ताकि उसका पानी पहले की तरह मछलियों के जिंदा रहने लायक हो सके। नदी अपने जीवनदायिनी स्वरूप में बह सके। पांडु न्याय चाहती है, सभ्य समाज उसका वकील बनेगा

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