कैप्टन आर. विक्रम सिंह
( लेखक पूर्व सैनिक,पूर्व आईएएस हैं. उत्तर प्रदेश के निवासी हैं.)

राममंदिर : भविष्य की उद्घोषणा

एक दिन वह था जब अपने मजहबी जुनून में बाबर के सिपहसालार मीर बाकी अयोध्या में कितने ही पुजारियों का वध करते हुए राममंदिर का ध्वंस किया और उसी के अवशेषों पर मसजिद तामीर कर दी, और एक दिन 22 जनवरी 2024 का आया जिसकी अभिव्यक्ति शब्दों में संभव ही नहीं है.
जो निर्माण अकबर टोडरमल के काल में हो भी गये थे उसका सम्पूर्ण ध्वंस औरंगजेब ने कर डाला.
दिसंबर 1949 को उक्त मंदिर के खण्डहरों पर बने ढांचे में रामलला की मूर्तियां दृष्टिगत हुईं. वह भी एक लम्बी कहानी है. एक सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह व एक जिला मजिस्ट्रेट के के नायर ने संकीर्ण राजनैतिक पक्षधरता को धता बताते हुए वह निर्णय लिया जिसने अयोध्या में मुक्ति के लिए सैकड़ों वर्षों चले आ रहे संघर्षों को विराम दे दिया. अब रामलला अपने जन्मस्थान पर विराजमान थे और यहां से आगे कानूनी लड़ाई होनी थी. शांतिव्यवस्था जिला मजिस्ट्रेट का क्षेत्राधिकार है. जिलामजिस्ट्रेट ने मूर्तियां नही हटवाईं तो नहीं हटवाईं. प्रधानमंत्री नेहरू सर पटक कर रह गये. नेहरू जी को भारत में हिंदू-पुनर्जागरण की संभावनाओं को रोकना था. अतः नेहरूकाल स्वतंत्रता के बाद भारतीय हिंदू संस्कृति के स्वाभाविक प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है. हम मुगलों का महिमामंडन देखते हैं. अकबर व टीपू सुल्तान महान् शासक हैं. महाराणा प्रताप व शिवाजी भारत के एकीकरण अभियान में नेहरू काल के प्रतिबद्ध इतिहासकारों द्वारा एक बाधा के रूप में परिभाषित किये गये. उनका प्रयास यह भी सिद्ध करना था कि राम-कृष्ण रामायण-महाभारत काल्पनिक चरित्र व इन काल्पनिक चरित्रों पर आधारित काव्य हैं. इनका मात्र साहित्यिक महत्व है. इतिहास से इनका कोई वास्ता नहीं है. वो तो हमारे प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता बी बी लाल थे जिन्होंने रामायणकालीन स्थलों को खोजकर इस विवाद पर विराम दिया. फिर भी इस खेमे ने हार नहीं मानी. वे रामसेतु जैसे रामकालीन साक्ष्यों को अदालतों में शपथपत्र लगाकर खारिज करते रहे.
यह अयोध्या का युद्ध धर्म-अधर्म के संघर्ष की तरह मुगलों के काल से ही चल रहा है. यह देश लगातार विधर्मियों के आक्रमणों का शिकार रहा है. यहां अंदर से किले के फाटक खोल देने वाले भी बहुत से रहे हैं.
भारत तो सन् 1759 तक तत्कालीन विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति एवं वैश्विक अर्थ साम्राज्य का संचालक रहा है. उसकी रणनीति तो अप्रतिम व सेनाएं अतिशक्तिशाली होनी चाहिए थी. लेकिन गांधार सिंध से पराजयों का क्रम प्रारंभ हुआ. जबरदस्त प्रतिरोध के बाद भी शत्रु संहार की एकीकृत रणनीति के अभाव में ये मजहबी आक्रांता अंततः भारतभूमि में प्रवेश कर ही गये. प्रतिरोध गांवों तक गया. पर धार्मिक भारत अपने योद्धाओं को एक होकर धर्मयुद्ध के लिए ललकार नहीं सका. अयोध्या की भूमि पर कितने ही युद्ध हुए. कनिंघम गजेटियर में लिखता है कि बाबर के सिपहसालार मीरबाकी के साथ हफ्तों चले युद्ध में मंदिर का ध्वंस व एक लाख चौहत्तर हजार हिंदुओं का बलिदान हुआ. एक बार तो पंजाब से आये निहंग सिख योद्धाओं ने एक हफ्ते तक मसजिद पर कब्जा बनाए रखा था. उन धर्मरक्षकों का भी लहू जन्मभूमि अयोध्या की मिट्टी में शामिल है.
अंग्रेजों के राज में यह 1885 से कानूनी विवाद में परिवर्तित हो गया जिसका पटाक्षेप दिनांक 9 नवंबर 2019 को उच्चतम न्यायालय के निर्णय से हुआ.
इसमें कोई संदेह तो नहीं है कि इस्लामिक आक्रांताओं ने भारत में हिंदू समाज के हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया. ध्वंसावशेषों का उपयोग कर अपनी मसजिदें, खानकाहें बनायीं. बहुत से प्रतिरोध, संघर्ष तो हुए लेकिन इन आक्रांताओं से भारतवर्ष के अंतिम निर्णायक युद्ध का समय निकट आ रहा था. मराठों ने अंतिम मुगल शासकों को बंधुआ स्थिति में रख छोड़ा था. राजपूताना भी मुगलों के वर्चस्व से बाहर आ रहा था. दक्षिण भारत में भी इन आक्रांताओं को चुनौतियां मिलने लगी थीं. संभवतः कुछ ही वर्षों में सुल्तानों, मुगलों, नवाबों का यह काल एक लम्बे दुःस्वप्न के समान भारतभूमि से सदासर्वदा के लिये विदा हो जाता लेकिन अचानक योरोपीय शक्तियों विशेष कर अंग्रेजों का आगमन ने शक्तियों के बन रहे समीकरण के मध्य में एक तीसरा आयाम दे दिया. परिणामस्वरूप भारतवर्ष का वह युद्ध जो पिछले आठ सौ वर्षों से प्रतीक्षित था, स्थगित हो गया. अंग्रेजों का उद्देश्य तो भारत की समृद्धि के आधारों को नष्ट कर आर्थिक शोषण का अपना आर्थिक साम्राज्य खड़ा करना था. उन्होंने मात्र इस हिंदू-मुस्लिम विभाजन का बखूबी उपयोग ही नहीं किया बल्कि और भी जितनी फाल्ट लाइंस, भ्रंश रेखाएं डाल सकते थे, डालते गये. आर्य-द्रविड़, हिंदू-सिख, सवर्ण-शूद्र आदि के रूप में जहां जहां भी संभव था वहां वहां वे विभाजक बाधाएं खड़ी करते गये. 1857 के संग्राम के उपरांत वे और सावधान हो गये. उन्होंने देखा था कि कारतूसों की चर्बी क्या गुल खिला सकती है. तो उन्होंने मिशनरियों का संगठन तो खड़ा किया कि लेकिन उन्हें खुली छूट नहीं दी. हां, धर्म व ब्राह्मणों के विरुद्ध प्रछन्न सामाजिक-शैक्षणिक अभियान अवश्य चलाया. परिणामतः हमारी मंदिरों की मुक्ति का वह लक्ष्य विदेशी शिक्षाओं के प्रभाव में अपनी दिशायें ही भटक गया. जो लोकतंत्र वे लेकर आये उसमें मुस्लिम पृथक निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ से थी. फलस्वरूप 20वीं शताब्दी का तीसरा दशक भीषण साम्प्रदायिक दंगों का वह दौर बना जो अंततः पाकिस्तान बनाकर ही गया. दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर में अलगाववादी मानसिकता को हवा देकर अंग्रेज एक विभाजित राष्ट्र की भूमिका लिखा कर गये थे. जो अंतरिम सरकार वे छोड़ गये थे उनके लिए भारतीय संस्कृति हिंदूधर्म हिंदू मंदिर आदि हाशिये के भी विषय नहीं थे. जिन हिंदूमंदिरों को हमने उस समय धर्मनिरपेक्षता की वेदी पर बलिदान कर दिया था, वहां से आज तो साक्ष्यों की झड़ियां लगी हुई हैं. राममंदिर का अयोध्या में अपने पूर्ण भव्य रूप में प्रकट होना, राष्ट्रनायक मोदी जी को बालक राम की आरती करते देखना हमारी सनातन सभ्यता के लिए गर्व रोमांच व परम आह्लाद का अवसर है. आज कृष्णजन्मभूमि ज्ञानवापी भी कानूनी सुरंगों से बाहर आ रहे हैं. ज्ञानवापी में व्यास जी के तहखाने में 1993 से मुलायम सरकार के द्वारा अनाधिकार प्रतिबंधित कर दी गयी पूजा अर्चना का प्रारंभ एक ईश्वरप्रदत्त घटना के समान लग रही है. जिला जज अजय विश्वेश को धन्यवाद जिन्होंने अपनी सेवा के अंतिम दिन इस विवाद के समाधान का मार्गदर्शन किया. इसके बाद तो हमारे सैकड़ों नगरों में ध्वंस धर्मस्थलों की वापसी के लिए एक साथ कितनी ही याचिकाएं दायर होंगी, इसका आकलन भी संभव नहीं है. प्रसिद्ध इतिहासकार सीताराम गोयल द्वारा प्रस्तुत लगभग तीन हजार ध्वंस हिंदू मंदिरों का विवरण आंखे खोलने वाला है. भविष्य में हम देखेंगे कि अपने मंदिरों को मुक्त कराना, प्रत्येक नगर का दायित्व हो जाएगा.
इसे भी समझ लिया जाये कि धर्मस्थलों की वापसी का यह अभियान किसी भी रूप में साम्प्रदायिक नहीं है. हिंदू समाज उन मंदिरों को वापस मांग रहा है जो उसके अपने थे, जिन्हें मजहबी आक्रांताओं ने ध्वंस कर अपने धर्मस्थलों में बदल दिया है. अब स्वतंत्रता आयी है तो सनातन हिंदू समाज उन सांस्कृतिक धार्मिक परिवेश को बिना किसी दुर्भावना के अपनी उसी पूर्व की स्थिति में लाना चाह रहा है जैसे ये सैकड़ों वर्ष पूर्व थे. ये स्थल तो आपके थे नहीं. चलिए सैकड़ों वर्ष आपने उनका अनैतिक अवैधानिक प्रयोग किया. हिंदू समाज अन्य के धर्म के स्थल तो कदापि नहीं चाहता. उसका लक्ष्य तो मूलतः अपने धर्म-संस्कृति के स्थलों की पुनर्स्थापना का है. राममंदिर की पुनर्स्थापना इस सांस्कृतिक लक्ष्य की स्पष्ट उद्घोषणा ही तो है.

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