‘मानसून के वक्त दिल्ली, यूपी, बिहार, उत्तराखंड, असम बाढ़ की विभीषिका झेल रहे हैं। गर्मियों के दिन इन्हीं इलाकों में सूखे का संकट पैदा होता है। पानी कुदरत की नेमत है। जल स्रोतों का सदुपयोग न किए जाने से बाढ़ और सुखाड़ के हालात पैदा होते हैं। हमें पानी का सम्मान और उसका सदुपयोग करना होगा।”
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ब्रजेंद्र प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार/ समाजिक कार्यकर्ता

भारत में मानसून शबाब पर है। बारिश तुलनात्मक रूप से कम हुई है, बावजूद इसके दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखण्ड, असम समेत कई राज्य अभी से बाढ़ की चपेट में हैं। ऐसे ही सर्दियाँ खत्म होते-होते तमाम राज्यों में जल सुलभ न रह जाने और सुखाड़ का संकट खड़ा होने लगेगा। जल चक्र का यह असंतुलन मानव और जीव- जंतुओं के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। पिछले दो दशकों से यह संतुलन बिगड़ ही रहा है। विकास के नाम पर जल स्रोतों और जल सम्भरण तन्त्र के साथ हुई छेड़छाड़ से यह हालात पैदा हुए हैं। बारिश के जल को सहेजकर रखने वाले ताल-तलैया और झीलें कब्जे का शिकार होती गई। नदियों के कैचमेंट एरिया यानी नदी के इलाके-उसके हिस्से की जमीन, उसके तट, पठार, वन क्षेत्र, जल सम्भरण क्षेत्र में आबादी हो गई। नदी के सदियों पुराने स्वाभाविक रास्तों पर मानव जन्य अतिक्रमण किया गया। इसलिए नदी में जरा सा पानी बढ़ने पर बाढ़ ‘कुख्यात’ हो जाती है। बाढ़ पहले भी आती थी; मगर नुकसान कम था क्योंकि बसावटें जल स्रोतों से सम्मानजनक दूरी थी, पर अब नदी के कछार ही बसावट है। इसीलिए बढ़ा हुआ जल आबादी को मुश्किल पैदा करने वाला दिखता है और होता भी है। बारिश और बाढ़ का यह जल पहले तालाब, झील, नदी के कैचमेंट एरिया में ठहरता था और रिसकर भूजल बढ़ाता था।

यह एक स्वाभाविक कर्म था, जिसे विकास की दखलन्दाजी ने बिगाड़ दिया। इसका असर ये है कि मानसून में नदी बाढ़ लाती है और बाद के दिनों में खुद पानी को तरसती है। दरअसल बारिश का अधिकांश पानी नदी से होता हुआ समुद्र में जा मिलता है। अगर यह पानी ताल, तलैया, झील और नदी की जमीन पर रुकता या रोका जाता तो रिसकर भूजल का भंडार बढ़ता। जरूरत पर नदियाँ इसी भूजल से अपनी धारा जिंदा रखतीं थी और मानव आबादी के लिए यह भूजल सुलभ था। पीने के लिए भी, सिचाई के लिए भी। संतुलन और सम्मान का रिश्ता बिगड़ जाने से अब पानी की लूट मची है। कुछ लोग 400, 600 फीट नीचे से पानी खींचकर गर्मियों में बहुमंजिले तरण तालों में मस्ती करते हैं और पेयजल से ही कारें धुलते हैं; वहीं लाखों लोग नदी की सूखी तलहटी पर बूंद बूंद पानी के लिए संघर्ष करते हैं।


पानी की पहुँच का यह विरोधाभास न लोकतन्त्र के लिए शुभ है न मानव जगत के लिए। विश्व बाजार में इसलिए बोतलबन्द पानी का व्यापार खरबों में जा पहुँचा है। पानी कुदरत की देन है। यह जन सामान्य और सभी प्राणियों के लिए है। इस पर बाजार का कब्जा क्यों? क्या हम दूसरे प्राणियों का हक मार जाने वाले मानव हैं? गर्मी के दिनों में जब शहर में नदी, ताल सब सूखे मिलेंगे तो जानवर और पक्षी कहाँ जाएंगे? यह सवाल 21वीं सदी के नागरिकों से उत्तर मांग रहा है।


ध्यान रखिये कि जिस देश में दूध की नदियाँ बहाने का वायदा किया गया था, उस कृषि प्रधान भारत के तमाम हिस्सों में अकाल की नौबत है। देश के 362 जिलों सूखे की चपेट हैं। जल संकट लगातार बढ़ते हुए 16 राज्यों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। राष्ट्र की 90 फीसदी नदियां सूख चुकी हैं या फिर मानसून के दौरान ही उनमें पानी रहता है। ज्यादातर नदियों की हालत दिन ब दिन और खराब होती जा रही है। उत्तर भारत में करोड़ों लोगों को सरसब्ज़ करने वाली आस्था की नदी गंगा की हालत भी ठीक नहीं है। जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले वक्त में 15 से अधिक राज्यों में जल संकट का खतरा मंडरा रहा है। बारिश के दिन घटे हैं, सतही जल के भंडार खाली हो रहे हैं और प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं।


जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव भी देखने को मिलने लगे हैं। कई स्थानों पर अचानक भारी वर्षा के कारण वहां की मिट्टी कटकर नदियों में जा रही है। इससे न केवल स्थान विशेष की ऊपजाऊ शक्ति घट रही है बल्कि नदियों में सिल्ट भी भर रही है। नदियों पर मंडराते संकट को देखने के बाद भी देश में कभी वर्षा जल संचयन के लिए युद्ध स्तर पर कोशिशें नहीं हुईं। न नदियों के तट पर सघन वनीकरण का अभियान चला। पिछले बर्षों में उत्तर प्रदेश में 5 करोड़ पौधे लगाने का रिकार्ड बनाया गया है। अभी फिर पौध रोपण हो रहा है. कोरोना काल में सरकारों ने मजदूरों को काम देने के लिए मनरेगा के धन से तालाब और नदियों की खुदाई कराने के तमाम दावे किए हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार ने तालाबों को अमृत सरोवर का नाम देकर उनका सुंदरी करण भी शुरू किया है. पर ऐसी कोशिशें अभी नाकाफी हैं.


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इससे हमारी पानी की जरूरत और उपलब्धता का अंदाजा लग सकेगा। संविधान सबको जीने का हक देता है और बिन पानी जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। इसलिए सरकार को सक्रिय होना पड़ेगा और समाज को भी।
भारत की संस्कृति में जल सहेजना शामिल रहा है। मगर अब तालाबों के संरक्षण की परंपरा भी मर रही है। हजारों साल पहले तलाब बनाने, उनके संरक्षण के लिए समाज आगे आता था, सत्ता के केंद्र भी उसे मदद देते थे। मगर अब तालाब और नदियों की जमीन, उसके जंगल पर कब्जा हो गया है। तालाबों के न होने से बारिश का जल बेकार बहते हुए समुद्र में जा रहा है। तालाब संरक्षण के लिए भारत के पारम्परिक ज्ञान और कामकाज का सदुपयोग करने में भी सरकारें कंजूस बनी रहीं।

तमाम शोध चेतावनी दे रहे हैं कि निकट भविष्य में पेयजल का संकट देश की सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आएगा। तेजी के साथ जंगल कटते चले जा रहे हैं। अवैध खनन के लिए नदियों के मूल स्वरूप को बिगाड़ दिया गया हैं। पहाड़ तोड़ दिए गए हैं। इसके कारण देश में औसत तापमान भी बढ़ गया है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक अलग अलग किस्म के जल संकट देखे जा सकते हैं। हालत यहां तक आ गई है कि पहाड़ी क्षेत्रों में भी पेयजल संकट बढा है। देश के 10 करोड़ से ज्यादा लोग भरपेट भोजन से वंचित हैं। हर राज्य में खेती चौपट है। किसान निराश और आक्रोशित हैं। कर्ज में डूबे किसान को उससे उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है, ऐसे वक्त में हमें पानी के लिए सोचना पड़ेगा

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