आर. विक्रम सिंह
पूर्व सैनिक पूर्वप्रशासक.

देश में आतंकी विभाजनकारी शक्तियां सक्रियता की दिशा में आगे बढ़ती दिख रही हैं. बस्तर क्षेत्र में कुछ ही दिनों पहले सेना के एक जवान मोतीराम अंचला सहित सात सुरक्षाकर्मियों की माओवादियों द्वारा हत्या की जा चुकी है. कश्मीर में कश्मीरी हिंदुओं की हत्याओं का क्रम बावजूद इसके कि पाकिस्तान के बुरे हाल हैं, रुकता नहीं दिख रहा है. इसी कड़ी मेंं एक कश्मीरी संजीव शर्मा की हत्या कर दी गयी है. तीसरा, पंजाब के हालात भी बिगड़ने लगे हैं. भिंडरावाले के जिस भूत को हम अपनी समझ में कहीं गहरे दबा आए थे, वह नये सिरे से सर उठाता दिख रहा है. कृषि आंदोलन के बाद से ऐसा अहसास हो रहा था कि कृषि आंदोलन के पीछे जो विदेशी प्रायोजक खड़े हैं उनका अगला कदम नये एजेंडे के साथ पंजाब में अस्थिरता, अलगाववादी सोच का माहौल बनाना, हो सकता है. तब से अब तक के इस समय का उपयोग उन्होंने नये नेतृत्व की खोज व उसको तैयार करने में लगाया है. आज अमृतपाल उसी अभियान का प्रतिफल है. लेफ्ट लिबरल लाबी, मुख्य भारत की साम्प्रदायिक शक्तियां व कश्मीरी अलगाववादियों में एक साथ सक्रियता का संचार होता दिख रहा है. ऐसा आभास हो रहा है कि इन तीनों राष्ट्रविरोधी शक्तियों में सामंजस्य स्थापित होने का कार्य पूर्ण हो चुका है. संभवतः राज्यों व केंद्रीय सरकार की प्रतिक्रियाओं का जायजा लेने के लिए तीन अलग अलग क्षेत्रों में ये मौसमी बैलून छोड़े गये हैं.


स्व. जनरल रावत ने एक बार कहा था कि आज परिस्थितियां ऐसी हो रही हैं कि देश को 2.5 मोर्चे पर युद्ध के लिए तैयार रहना होगा. तो यह जो 0.5 का मोर्चा है वही माओवादियों, अलगाववादियों, जेहादियों का संयुक्त आंतरिक गठजोड़ है जो राष्ट्रशत्रुओं में समन्वय कर उन्हें एक संयुक्त युद्धक शक्ति बना रहा है. जैसा कि हम देखते हैं, इसे मीडिया के एक बड़े समूह का प्रश्रय मिला हुआ है. वाम, साम्प्रदायिक दक्षिणीपंथी दोनों प्रकार की वैचारिकता की आड़ लिये हुए प्रारंभ से ही इन लोगों का लक्ष्य भारत का विभाजन है अतः वे बीबीसी डाक्यूमेंट्री, जार्ज सोरोस से लेकर बस्तर में हत्याओं तक देशी विदेशी हर प्रकार के प्लेटफार्म पर वे अपनी रणनैतिक पहल करते देखे जा रहे हैं. एक अरसे से यह समूह हिंदू राष्ट्र, हिंदुत्व के विचार को कटघरे में खड़ा कर रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व विश्वहिंदू परिषद् जैसे संगठनों को रक्षात्मक बनाने का प्रयास इनकी रणनीति का महत्वपूर्ण भाग है. इनके देशी विदेशी एजेंटों ने यह काम प्रारंभ कर भी दिया है. भारत में तो हमने हिंदू आस्था के आधार रामचरित मानस पर हो रहा आक्रमण देखा है. दूसरी ओर ब्रिटेन आस्ट्रेलिया के मंदिरों को भी निशाना बनाया जा रहा है. देखा जाये तो बिना किसी कारण के अचानक यह बिंदु इस समय में उभरने का कोई औचित्य बनता ही नहीं दिखता लेकिन तार दूर दूर तक जुड़े हैं. हिंदू को अक्षम असहाय दिखाना मनोबल तोड़ना भी लक्ष्य है.

यह भारत विखंडन की टूलकिट के प्रारंभिक कदम हैं. स्वामी प्रसाद मौर्या का नया रामचरित मानस विरोधी विमर्श व एक समूह द्वारा मानस की प्रतियां जलाना और उधर ब्रिसबेन आस्ट्रेलिया में मंदिर में तोड़फोड़ करना आस्था पर आक्रमण की कोई अचानक स्वतःस्फूर्त घटना न होकर एक बड़ी योजना का एक हिस्सा भर है. ‘भारत तोड़ो’ शक्तियों ने राष्ट्रीय शक्तियों को उनके अपने मैदान पर उनकी योजनानुसार खेलने को आमंत्रित किया है. प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध बीबीसी की डाक्यूमेंट्री फिर हिंडनबर्ग रिपोर्ट का संयुक्त तूफान भारत के अर्थतंत्र को अक्षम करने की योजना का हिस्सा है. लोकसभा में विपक्षी दलों का सामान्य शालीनताओं को अतिक्रमित करता हुआ अप्रत्याशित व्यवहार भी ऐसी ही कहानी कहता है. आक्टोपस का एक मस्तिष्क व बहुत से हाथ होते हैं. वे हाथ एक एक करके सक्रिय होते जा रहे हैं.


पाकिस्तान के पास धन नहीं है लेकिन आतंकवादी एजेंसियां, पर्याप्त आतंकी मानव संसाधन, हाफिज सईद, सैयद सलाहुद्दीन जैसे आतंकवादी सरगना तो हैं ही. धन की व्यवस्था भारत विरोधी धनाढ्य अन्तर्राष्ट्रीय षड़यंत्रकारियों, कतिपय विदेशी सरकारों द्वारा होने के प्रमाण तो मिल ही रहे हैं.


हमने अब तक चाहे वह पंजाब की आतंकवादी समस्या रही हो या कट्टर कश्मीरी आतंकवाद व पीएफआई जेहादी अभियानों की, पहल हमेशा इन आतंकी, विभाजनकारी शक्तियों के हाथों में ही दे रखी है. राज्य अब तक मात्र प्रतिक्रिया ही देता रहा है. हम चाहें तो इसका दोष राज्यों में सत्ता लोभी राजनीति को दें लेकिन पंजाब में आप, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, बंगाल में टीएमसी के केंद्रीय सरकार के धुर विरोध का लाभ अंततः इन विभाजनकारी शक्तियों को ही मिल रहा है.

2014 के बाद से जिन क्षेत्रों में केंद्र ने पहल करनी प्रारंभ की है वहां सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं. राष्ट्रविरोधी संगठन पीएफआई के सम्बंध में हमने देखा है कि इससे पहले कि वे अपने आक्रमण प्रारंभ कर सकें, केंद्र सरकार ने उन के हथियार रखवा कर उन्हें फिलहाल अक्षम कर दिया है. अब परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रशत्रुओं के आगामी अभियान में उनका एक सशक्त भागीदार, खेल प्रारंभ होने पहले ही  मैदान से ही बाहर हो गया है. यह साम्प्रदायिक शक्तियों के लिये एक बड़ा सेटबैक है. उनका देश को 2047 तक धर्मांतरित कराने की योजना आम हो कर सड़क पर आ गयी है. इन सब गतिविधियों से संकेत मिलता है कि 2024 के चुनाव का लक्ष्य लेकर चलने वाला टूलकिट लांच हो गया है और शतरंज के सभी मोहरे उसी के अनुसार चलाए जा रहे हैं.

अब हमारे पास रास्ते क्या हैं ? राज्यों की शांति-व्यवस्था की मशीनरी पर देश की शांति निर्भर है. सब जगह डबल इंजन की सरकारें नहीं हैं. समय कठिन है. भारत की वैश्विक छवि की रक्षा भी महत्वपूर्ण है. शांति व्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण विषय को, संविधान में एक सौ से अधिक संशोधनों के बावजूद, समवर्ती सूची में नहीं लाये जाने पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया गया है, न ही इस दिशा में कोई प्रयास ही हुए हैं. राज्यों में केंद्र का दखल राष्ट्रपति शासन लगने के बाद ही संभव हो पाता है. सीमाओं पर स्थित राज्य, जहां अस्थिरता की शक्तियां अधिक प्रभावशाली हैं, वहां पर केंद्रीय दखल की संवैधानिक व्यवस्था का होना नितांत आवश्यक है. उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के अनुक्रम में राष्ट्रपति शासन का विकल्प समाप्त सा हो गया है. संविधान निर्माताओं की कल्पनाओं में भी न रहा होगा कि देश के राज्य, अपने अलग एजेंडों पर चलते हुए कल भारत सरकार को ही चुनौतियां देने लगेंगे. जातीय, साम्प्रदायिक, विभाजनकारी शक्तियों की सरकारें बनेंगी. भारत तोड़ो अभियान चलाने वालों के ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ बनेंगे. तात्पर्य यह है कि विभाजनकारी शक्तियों से मुकाबले के लिए केंद्र के पास अतिरिक्त संवैधानिक शक्तियों की अपेक्षा है जिससे कि राज्य कभी भी स्वयं में विभाजनकारी, सांप्रदायिक शक्तियों के गढ़ न होने पाएं.


दूसरा, राज्यों के दायित्वों की समीक्षा आवश्यक है. वे प्रशासनिक इकाइयां ही हैं, कोई सार्वभौम क्षेत्र नहीं हैं. उनके कार्यों की सीमाएं हैं. केंद्र की शक्तियों को चुनौती देते रहना उनका काम नहीं है. हमने असहाय क्षमाप्रार्थी प्रकृति के झुके हुए प्रधानमंत्री देखे हैं. केंद्र को अधिकार होना चाहिए कि गहन विकास व शांति व्यवस्था जैसी स्थितियों की दृष्टि से वह राज्य या राज्य के एक भाग यथा किसी जनपद या कमिश्नरी क्षेत्र को अपने सीधे नियंत्रण में ले सके. जब परिस्थितियां असाधारण, असामान्य हो रही हों, राष्ट्र के विरुद्ध षड़यंत्र चल रहे हों तो वहां मात्र सन् 1861 की सीआरपीसी व 1950 के संवैधानिक प्रावधानों से काम नहीं चलने वाला है. परिवर्तन का विरोध होगा. सरकार को तानाशाह अधिनायकवादी भी कहा जाएगा लेकिन देश की वर्तमान परिस्थितियों के दृष्टिगत निर्णय न लेना, आगे एक महान् ऐतिहासिक गलती कही जाएगी

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