-अरविन्द त्रिपाठी

​हाल में, देश में मानसून आने को है। सभी प्रदेशों में नगर विकास मंत्रियों ने प्राथमिकता के आधार पर शहरी नालों की सफाई का जन-लुभावना ऐलान कर रखा है। जिस प्रकार, विकास और शहरीकरण एक दूसरे का पर्याय हैं। इसी भांति नालों की सिल्ट और चोक सीवरेज के कारण जल-भराव एक-दूसरे का पर्याय बन चुके हैं। प्रत्येक वर्ष नालों की सिल्ट साफ़ करने में पर्याप्त सुरक्षा-मानकों का पालन न करने के कारण असंगठित क्षेत्र के मजदूर जहरीली गैस रिसाव की चपेट में आकर असामयिक मौत का शिकार बन जाते हैं। इस पूरी समस्या की जड़ में, अनियोजित कूड़ा-प्रबंधन है। अनियंत्रित उपभोक्तावादी जीवन के कारण शहरीकरण के जन्मजात दोष के रूप में नागरिकों में “सिविक सेन्स” और नगर निगमों में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के नियोजन के अभाव से महानगरों में कूड़े के पहाड़ समस्या बनते जा रहे हैं। इसके चलते हवा और पानी के माध्यम से मृदा और जीवन में जहर घुलता जा रहा है। भूजल की गुणवत्ता कुप्रभावित होने के बाद भूगर्भ जल भी तेजी से कूड़े के पहाड़ों के रिसाव से तेजी से जहरीला होता जा रहा है।
​विश्व में, सर्वप्रथम हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की सभ्यता में नियोजित शहरीकरण का प्रमाण पाया जाता है। ग्रिड-आधारित व्यवस्था पर आधारित समकोण पर बनी सड़कों और पकी ईंटों की बनी नालियाँ इस सभ्यता को पूर्व और समकालीन सभ्यताओं से श्रेष्ठ बनाती हैं। इसके साथ ही, इन नाले-नालियों में कूड़ा-करकट और सिल्ट की सफाई के लिए बनाए गये सोकपिट की उपलब्धता इन सड़कों की सबसे बड़ी खासियत है। यह साबित करता है कि हम भारतीय ग्रामीण अतिरेक उत्पादन से विकसित हुए नगरों के नागरीय प्रबंधन के भी विशेषज्ञ रहे हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि नगरीय कूड़ा और घरेलू एवं वर्षा-जल प्रबंधन भी हमारे शहरी नियोजन का अनिवार्य भाग रहा है। किन्तु दुर्भाग्यवश या अज्ञानतावश इतने स्वर्णिम इतिहास के बावजूद ब्रिटिशकाल में प्राकृतिक नालों और छोटी नदियों में शहरी मल-जल को मिलाकर इन प्राकृतिक जल-स्रोतों को विषाक्त और अपवित्र करने की साजिश का व्यवस्थित विरोध न किया जा सका। आज देश की सभी बड़ी नदियाँ मानव उत्सर्जित मल और अजैविक कूड़ा ढोने की मालगाड़ियां बन चुकी हैं। शाश्वत नगरी वाराणसी की वरुणा और असी नदियाँ पूरी तरह नाला बन चुकी हैं।
​ब्रिटिश काल में ही महामना मदन मोहन मालवीय जी ने तत्कालीन सरकार को इन सहायक नदियों में घरेलू अपशिष्ट न मिलाये जाने का विरोध किया था। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस प्रयास के बाद इसकी पुनरावृत्ति न करने के लिए आश्वस्त किया था, इस आश्वासन को कालान्तर में भुला दिया गया। इसी क्रम में, कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी ने विधान सभा में कानपुर और वाराणसी की गंगा में गिर रहे नालों के प्रबंधन पर सवाल किया था, जोकि आज भी विधानसभा की लाइब्रेरी में दर्ज है। विद्यार्थी जी के उठाये गए सवालों को सौ वर्ष हो रहे हैं। विदेशी ही नहीं स्वदेशी सरकार भी सभी राजनीतिक दलों की बन चुकी हैं। सिल्ट की सफाई के माध्यम से गँगा को घाटों पर लाने की जन-जागृति अभियान की परिणति सरकारी योजना “गंगा एक्शन प्लान” के दो फेज के रूप में रह चुकी है। इसी तर्ज पर देश की तमाम नदियों की सफाई की करोड़ों धनराशि की सिविल इंजीनियरिंग की योजनायें बनती और असफल होती रही हैं। स्वयं को माँ गँगा का पुत्र कहने वाले भारत के प्रधानमन्त्री वाराणसी से ही तीसरी बार संसद में हैं। जनप्रेरक और नवोन्मेषी व्यक्तित्व के कारण उनसे देश को तमाम आशाएं और विश्वास निराधार ही नहीं है। उनके नेतृत्व की वर्तमान सरकार भी “नमामि गंगे” के नाम से महत्वाकांक्षी योजना संचालित कर रही है। बहुत सी छोटी और सहायक नदियों के साथ ही नदी-व्यवस्था के तालब-झील-सरोवरों के पुनर्जीवन की योजनायें भी इस योजना का भाग हैं। इस अति-महत्वाकांक्षी योजना के पूर्ण होने में समय शेष है, तदोपरांत ही इसका मूल्यांकन किया जा सकेगा।
​देश की वर्तमान आवश्यकता नागरिकों और सरकारों द्वारा उत्सर्जित जैविक, अजैविक और रासायनिक कूड़े के कुशल-प्रबंधन की व्यवस्था करना है। यह कार्य केवल सरकारों के माध्यम से ही नहीं हो सकता है। जनजागरण और जनसहभागिता के लिए शहरों में बनी जनसमितियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। साथ ही, शिक्षा प्रणाली में अनिवार्य भाग बनाकर छात्र-छात्राओं को कूड़ा-प्रबंधन का ज्ञान कराया जाना अत्यावश्यक है ताकि “मेरा कूड़ा जमीन नहीं छूता” जैसा जन-सहभागी अभियान सार्थक रूप से संचालित किया जा सके। घरेलू निकासी जल और जलघुलित मल के प्रबंधन के साथ ही रासायनिक और औद्योगिक कचरे के प्रबंधन की शिक्षा के साथ ही सरकारों को ट्रीटमेंट प्लांट बनाने चाहिए। इस दिशा में विश्व के विकसित देशों की व्यवस्था से सबक लेते हुए भारतीय संस्कृति और संसाधनों को देखते हुए सतत कार्ययोजना बनाकर नालों में गंदगी ठेलने की प्रवृत्ति पर रोक लगाना होगा। बारिश के मौसम के आगमन के पूर्व नालों की सिल्ट साफ़ करने के साथ ही पानी के सभी कटोरों- यथा, झील, तालाब, सरोवरों, जोहड़, बावड़ी और कुओं की सफाई भी कराना अति आवश्यक है ताकि बारिश की प्रत्येक बूँद को सहेजने में सफलता मिले। दरअसल, आने वाली पीढ़ियों को समृद्ध प्राकृतिक जीवन उपलब्ध कराने के लिए इन जलनिधियों में जमा सिल्ट की सफाई कर वर्षाजल संग्रह के लिए इन सभी का वास्तविक और ऐतिहासिक स्वरूप स्थापित करने के लिए सरकार को अभियान चलाना ही होगा।

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