स्वामी प्रसाद मौर्य लंबे समय से सपा में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उनके हर बयान को समय-समय पर प्रो. रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव निजी राय बताते रहे हैं। वहीं, विधानसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक मनोज पांडे तो उनका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ बता चुके हैं। 

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव उनके खिलाफ आ रहे बयानों पर कोई लगाम नहीं लगा रहे हैं। पार्टी नेतृत्व पर दलितों और पिछड़ों को उचित भागीदारी न दिए जाने का जो आरोप उन्होंने लगाया है, वो दरअसल राज्यसभा चुनाव से जुड़ा है। यहां तीन में दो टिकट सामान्य वर्ग को दे दिए गए हैं। 

इससे भी स्वामी प्रसाद क्षुब्ध बताए जा रहे हैं। टिकट वितरण में उनकी मानी जानी तो दूर, महासचिव होने के बावजूद कोई जानकारी तक नहीं दी गई। बताते हैं कि जया बच्चन को पांचवीं बार प्रत्याशी बनाए जाने के स्वामी प्रसाद खिलाफ हैं।

दबाव की राजनीति या अलग राह पकड़ने की ओर 
सूत्रों का कहना है कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने अखिलेश यादव से अलग राह पकड़ने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। महासचिव पद से उनका इस्तीफा दोतरफा लिटमस टेस्ट की तरह है। एक, सपा नेतृत्व उनके इस कदम से कितना दबाव में आता है। दूसरा, किसी अन्य दल की तरफ से कितना महत्व मिलता है।

सूत्र बताते हैं कि सपा नेतृत्व के दबाव में आने पर आगामी लोकसभा टिकट वितरण में उनके कहने से कुछ टिकट दिए जा सकते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्या की पुत्री संघमित्रा बदायूं से भाजपा सासंद हैं, जहां से सपा ने धर्मेंद्र यादव को टिकट दे दिया है। स्वामी प्रसाद अपनी पुत्री के लिए आंवला (बरेली) से टिकट चाहते हैं।

फर्रुखाबाद के टिकट से नहीं हैं खुश
सूत्रों का कहना है कि स्वामी प्रसाद मौर्य नहीं चाहते थे कि फर्रुखाबाद से डॉ. नवल किशोर शाक्य को प्रत्याशी बनाया जाए। डॉ. शाक्य की शादी संघामित्रा से हुई थी, लेकिन बाद में तलाक हो गया था। स्वामी प्रसाद धार्मिक आडंबरों पर लगातार हमला बोल रहे हैं और प्रभु की प्राण प्रतिष्ठा को भी अवैज्ञानिक धारणा बता रहे हैं। ऐसे में सपा नेतृत्व के भगवान शालिग्राम की स्थापना से पहले पूजा-अर्चना का कार्यक्रम भी उन्हें रास नहीं आया है और इसी दिन उन्होंने महासचिव पद से इस्तीफे का एलान कर दिया।

इस्तीफे पर सपा अध्यक्ष लेंगे निर्णय
सपा के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि स्वामी प्रसाद मौर्य के महासचिव पद से इस्तीफे के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। यह भी नहीं पता है कि यह इस्तीफा अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को मिला है या नहीं। इस्तीफे पर अंतिम निर्णय सपा अध्यक्ष के स्तर से ही होगा।

सपा महासचिव के पद से स्वामी प्रसाद मौर्या का इस्तीफा

दरअसल, मंगलवार को पूर्व कैबिनेट मंत्री व एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्या ने सपा के राष्ट्रीय महासचिव के पद से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने पार्टी नेतृत्व पर दलितों व पिछड़ों को उचित भागीदारी न देने समेत कई गंभीर आरोप लगाए हैं। लेकिन, अंदरखाने माना जा रहा है कि वे राज्यसभा के टिकट वितरण से नाराज चल रहे हैं। उनके इस्तीफे को सपा नेतृत्व पर दबाव की राजनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है।

‘मैंने पार्टी को 45 से 110 पर पहुंचाया’

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को भेजे त्यागपत्र में उन्होंने कहा है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राममनोहर लोहिया समेत सामाजिक न्याय के पक्षधर महापुरुषों ने 85 बनाम 15 का नारा दिया था। लेकिन, समाजवादी पार्टी इस नारे को लगातार निष्प्रभावी कर रही है। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में भी बड़ी संख्या में प्रत्याशियों का पर्चा व सिंबल दाखिल होने के बाद अचानक प्रत्याशियों को बदला गया। इसके बावजूद वह पार्टी का जनाधार बढ़ाने में सफल रहे। विधानसभा के अंदर पार्टी को 45 से 110 पर पहुंचा दिया।

त्यागपत्र में उन्होंने खुद को सपा का महासचिव और एमएलसी बनाने के लिए सपा अध्यक्ष को धन्यवाद भी दिया। खुद के सुझावों को न माने जाने की पीड़ा रखते हुए कहा कि जनवरी-फरवरी 2023 में उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को जातीय जनगणना समेत अहम मुद्दों पर प्रदेश में रथयात्रा निकालने का सुझाव दिया था। लेकिन, इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

स्वामी प्रसाद ने त्यागपत्र में कहा है कि पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों को भाजपा के मकड़जाल से निकालने की कोशिश की तो पार्टी के कुछ छुटभैये और कुछ बड़े नेता इसे ”मौर्या का निजी बयान” बताकर संघर्ष की धार को कुंद करने की कोशिश कर रहे हैं। यहां उन्होंने किसी का नाम तो नहीं लिया है, लेकिन माना जा रहा है कि उनका इशारा सपा के प्रमुख महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव, महासचिव शिवपाल यादव और विधानसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक मनोज पांडे की ओर है।

स्वामी प्रसाद लिखते हैं कि कुछ राष्ट्रीय महासचिव का हर बयान पार्टी का हो जाता है, जबकि उनका निजी, यह समझ से परे है। जबकि, उनके इन बयानों से ही दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों का रुझान सपा की तरफ बढ़ा है। अगर राष्ट्रीय महासचिव पद में भी भेदभाव है, तो ऐसे भेदभावपूर्ण और महत्वहीन पद पर बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। अंत में उन्होंने कहा है कि पद के बिना भी वह पार्टी को सशक्त बनाने के लिए तत्पर रहेंगे।

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